________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 106 स्वलक्षणदर्शनवशप्रभवोऽध्यवसाय: प्रवृत्तिविषयोपदर्शकत्वात्प्रवर्तक इति चेत्, प्रत्यक्षपृष्ठभावी विकल्पस्तथास्तु। समारोपव्यवच्छेदकत्वादनुमानाध्यवसायस्य तथाभावे दर्शनोत्थाध्यवसायस्य किमतथाभावस्तदविशेषात् प्रवृत्तस्यारोपस्य व्यवच्छेदकोऽध्यवसायः . प्रवर्तको न पुनः प्रवर्तिष्यमाणस्य व्यवच्छेदक इति बुवाणः कथं परीक्षको नाम? तत्त्वार्थवासनाजनिताध्यवसायस्य वस्तुविषयतायामनुमानाध्यवसायस्यापि सेप्टेति तदात्मिका भावना न तत्त्वविषयतो नाविद्याप्रसूतिहेतुरविज्ञातो विद्योदयविरोधात् / नन्वविद्यानुकूलाया एवाविद्याया विद्याप्रसवनहेतुत्वं विरुद्धं न पुनर्विद्यानुकूलाया: सर्वस्य तत एव विद्योदयोपगमादन्यथा विद्यानादित्वप्रसक्तेः संसारप्रवृत्त्ययोगादिति चेत्। न। स्यावादिनां यदि वस्तुभूत स्वलक्षण दर्शन से उत्पन्न हुआ अध्यवसाय (निश्चय ज्ञान) प्रवृत्ति के विषय का उपदर्शक (दिखाने वाला) होने से प्रवर्तक माना जाता है तब तो प्रत्यक्ष ज्ञान के पीछे होने वाला विकल्प ज्ञान भी प्रवृत्ति के योग्य विषय का प्रदर्शक होने से वस्तुज्ञान का प्रवर्तक हो जायेगा। अर्थात् जैसे वस्तुभूत स्वलक्षण को जानने वाले दर्शन के पश्चात् उत्पन्न हुआ निश्चय ज्ञान प्रवर्तक है, उसी प्रकार प्रत्यक्ष के पश्चात् होने वाला सविकल्प ज्ञान भी तत्त्वज्ञान का प्रवर्तक है,ऐसा मानने में क्या हानि है। क्षणिक आदि विषय में उत्पन्न संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रूप समारोपों का व्यवच्छेदकत्व होने से अनुमान रूप निश्चय ज्ञान को वैसा होने पर प्रवर्तक मानते हैं। अर्थात् अनुमान का निश्चय समारोप का व्यवच्छेदक है- अत: वस्तुभूत तत्त्व में प्रवर्तक है। उसी प्रकार दर्शन, (निर्विकल्पस्वलक्षण) से उत्पन्न अध्यवसाय के (निश्चय रूप विकल्प) अनुमान के समान प्रवर्तकपना कैसे नहीं हो सकता है दोनों में कोई अन्तर नहीं है। (बौद्ध कहता है-) पूर्व काल से ही प्रवृत्त हुए समारोपों का व्यवच्छेद करने वाला होने से क्षणिकत्व का अनुमान रूप निश्चय ज्ञान प्रवर्तक कहा जाता है। किन्तु भावीकाल में उत्पन्न होने वाले संशय आदि को संभाव्य रूप से दूर करने वाले उन प्रत्यक्षों के बाद उत्पन्न हुए विकल्प ज्ञानों को हम प्रवर्तक नहीं मानते हैं। जैनाचार्य कहते हैं- इस प्रकार (पक्षपातपूर्वक) कहने वाले बौद्ध, परीक्षक कैसे हो सकते हैं? नहीं, अर्थात् नहीं। तत्त्वार्थ की वासना से उत्पन्न अध्यवसाय के वस्तुविषयता होने पर अनुमानाध्यवसाय के भी वह इष्ट है। इस प्रकार वह भावना स्वरूप ज्ञान भी वस्तुस्वरूप को ही विषय करने वाला मानना चाहिए। अपरमार्थभूत अतत्त्वों को जानने वाला अध्यवसायात्मक भावनाज्ञान ठीक नहीं है। अतः मिथ्याज्ञान रूप भावना सर्वज्ञता को उत्पन्न नहीं कर सकती। क्योंकि अविद्या से विद्या की उत्पत्ति नहीं हो सकती। अविद्या से विद्या की उत्पत्ति नहीं होती शंका - (बौद्ध) अविद्या दो प्रकार की है, एक सम्यग्ज्ञान की सहकारिणी और दूसरी मिथ्याज्ञान की सहकारिणी। जो अविद्या के अनुकूल (सहकारिणी) अविद्या है, उसके विद्या की उत्पत्ति के हेतुत्व का विरोध है। परन्तु जो विद्या (सम्यग्ज्ञान) के अनुकूल है- उस अविद्या से विद्या की उत्पत्ति में कोई