________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 99 भिन्न एवेति चेत् कथं तैय॑पदिश्यते? परस्माद्विशेषणविशेष्यभावादिति चेत्, स एव पर्यनुयोगोऽनवस्थानं च। सुदूरमपि गत्वा स्वसंबंधिभिः संबंधस्य तादात्म्योपगमे परमतप्रसिद्धेर्न समवायिविशेषणत्वं नाम।। विशेषणत्वे चैतस्य विचित्रसमवायिनाम्। विशेषणत्वे नानात्वप्राप्तिदंडकटादिवत् // 73 // सत्यपि समवायस्य नानासमवायिनां विशेषणत्वे नानात्वप्राप्तिर्दण्डकटावित्। न हि युगपन्नानार्थविशेषणमेकं दृष्टं। सत्त्वं दृष्टमिति चेन्न / तस्य कथंचिन्नानारूपत्वात् / तदेकत्वैकांते घटः सन्निति प्रत्ययोत्पत्तौ सर्वथा सत्त्वस्य प्रतीतत्वात् सर्वार्थसत्त्वप्रतीत्यनुषंगात्क्वचित्सत्तासंदेहो न स्यात् / सत्त्वं सर्वात्मना प्रतिपन्नं न तु सर्वार्थास्तद्विशेष्या . इति। तदा कचित्सत्तासंदेहे घट विशेषणत्वं बना रहेगा कि पृथक्भूत दूसरे विशेष्य-विशेषण भाव में 'यह उसका है' यह व्यवहार कैसे होगा? और ऐसा होने पर अनवस्था दोष आयेगा। बहुत दूर जाकर स्वसम्बन्धी के साथ सम्बन्ध का तादात्म्य सम्बन्ध स्वीकार कर लेने पर परमत (जैनमत) की सिद्धि हो जायेगी। अतः समवायी विशेषणता नहीं है। अर्थात् समवाय नामक सम्बन्ध ही नहीं है। गुण-गुणी के साथ तादात्म्य सम्बन्ध है। - यदि समवाय को विचित्र (नाना प्रकार के आत्मा आदि) समवायियों का विशेषण मान लिया जाता है तब तो दण्ड, चटाई आदि संयोगी विशेषण के समान समवाय विशेषण को भी अनेकपने की प्राप्ति होगी। अर्थात् समवाय भी अनेक होंगे, जैसे संयोग अनेक हैं।।७३ / / सत्ता अनेकरूपा समवाय को नामा समवायियों का विशेषण मान लेने पर दण्ड, कट (चटाई) नाना संयोग विशेषणों के समान समवाय विशेषण भी अनेक हो जायेंगे। क्योंकि युगपत् (एक साथ) अनेक पदार्थों का विशेषण एक दृष्टिगोचर नहीं होता है। (वह अनेक होता है।) (यदि यहाँ वैशेषिक यह कहें कि) सत्ता जाति रूप एक विशेषण एक साथ अनेक पदार्थों में रहता हुआ देखा गया है तो ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि वह सत्ता भी कथंचित् नाना रूप है। क्योंकि सर्वथा एकान्त रूप से सत्ताजाति एक मान लेने पर 'घट है' इस प्रकार ज्ञान की उत्पत्ति होने पर सर्वथा सत्त्व की (सर्वसत्ता की) प्रतीति हो जाने से सर्व सत्तारूप पदार्थों के ज्ञान होने का प्रसंग आयेगा। कहीं पर भी सत्ता में संशय नहीं रहेगा- क्योंकि सत्ता सर्व एक है। परन्तु घट-पट आदि को जान लेने पर भी सर्व पदार्थों का ज्ञान नहीं होता है। अतः कथंचित् सत्ता जाति अनेक है, एक नहीं है। . (यदि कोई कहे कि) विशेषण रूप सत्ता नाम की जाति को तो एक सत्त्व के जानने से जान लिया जाता है किन्तु उस जाति के आधारभूत सम्पूर्ण विशेष्य अर्थों को नहीं जान सकते हैं। अत: उस समय किसीकिसी पदार्थ में सत्ता का सन्देह हो जाता है। जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा मानने पर तो सत्ता अनेकरूप सिद्ध हो जाती है। क्योंकि घट में रहने वाली सत्ता का घट में विशेषणपना भिन्न है। और दूसरे पदार्थों में रहने वाली सत्ता का अर्थान्तर के साथ विशेषणत्व भिन्न है। इस प्रकार सत्ता में भी नानापना सिद्ध होता है।