________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 88 ज्ञानमेव स्थिरीभूतं समाधिरिति चेन्मतम् / तस्य प्रधानधर्मत्वे निवृत्तिस्तत्क्षयाद्यदि // 57 // तदा सोऽपि कुतो ज्ञानादुक्तदोषानुषंगतः / समाध्यंतरतशेन तुल्यपर्यनुयोगतः // 58 // तस्य पुंसः स्वरूपत्वे प्रागेव स्यात्परिक्षयः। संस्कारस्यास्य नित्यत्वान कदाचिदसंभवः // 59 // आविर्भावतिरोभावावपि नात्मस्वभावगौ। परिणामो हि तस्य स्यात्तथा प्रकृतिवच्च तौ॥६० / / ततः स्याद्वादिनां सिद्धं मतं नैकांतवादिनाम्। बहिरंतश्श वस्तूनां परिणामव्यवस्थितेः // 61 // रत्नत्रय ही मोक्षमार्ग है बहुत समय तक एक से स्थिर रहने वाले ज्ञान को समाधि मानोगे तो हम पूछते हैं कि वह ज्ञान क्या सत्त्व, रज और तमो गुण की साम्यावस्था रूप प्रकृति का धर्म है? यदि उस स्थिर ज्ञान स्वरूप प्रकृति के विकार से आयु नामक संस्कार रूप प्रकृति का नाश होता है तो उस स्थिर ज्ञानरूप प्रकृति का नाश करना भी आवश्यक है, वह किस ज्ञान से होगा? और उस स्थिरीभूत प्राकृतिक ज्ञान के संसर्ग का भी नाश करने के लिए अन्य तीसरे आदि समाधिरूप धर्म का अवलम्बन लेना पड़ेगा। उस समाधि का किस ज्ञान से नाश होता है? उसमें भी पूर्वोक्त दोषों का प्रसंग आता है। "स्थिररूप ज्ञान का समाधि अन्तर से नाश होता है" ऐसा भी नहीं कह सकते। क्योंकि उसमें उपर्युक्त प्रश्नों का अनुयोग रहेगा। अर्थात्- समाधि प्रकृति का धर्म है तो प्रधान का क्षय करना मान नहीं सकते। यदि उस ज्ञान रूप प्रकृति का नाश अन्य ज्ञान रूप से माना जायेगा तो उस अन्य ज्ञान रूप प्रकृति का नाश किससे होगा-इत्यादि प्रश्न उठते ही रहेंगे; अनवस्था दोष आयेगा। यदि उस स्थिर ज्ञान को प्राकृतिक न मानकर आत्मा का स्वरूप मानोगे तब तो आयु नामक संस्कार का क्षय पहले से ही हो जाना चाहिये था। क्योंकि आत्मा अनादि काल से नित्य है। उस आत्मा से तादात्म्य सम्बन्ध रखने वाले इस स्थिर ज्ञान रूप विरोधी के सदा उपस्थित रहने पर कभी भी आयु नाम का संस्कार उत्पन्न नहीं हो सकता है। और स्थिर ज्ञान की कभी असंभवता ही नहीं रहेगी। सदा स्थिर रूप ज्ञान बना रहेगा // 57-58-59 // - आविर्भाव और तिरोभाव भी आत्मगत स्वभाव नहीं हैं क्योंकि आविर्भाव और तिरोभाव को आत्मा का स्वभाव मान लेने पर प्रकृति के समान आत्मा के दो परिणाम होंगे-आविर्भाव, तिरोभाव। तथा आत्मा और प्रकृति को परिणामी मानने पर स्याद्वादियों के मत की ही सिद्धि होगी, एकान्तवादियों (कापिलों) के मत की सिद्धि नहीं हो सकती। क्योंकि वस्तुओं के बहिरंग (घट पट आदि) और अन्तरंग (ज्ञानादि) परिणामों की व्यवस्था अनेकान्त में ही होती है, एकान्त में नहीं। अर्थात् कंथचित् नित्यानित्यात्मक वस्तु में ही परिणमन हो सकता है, एकान्त में नहीं // 60-61 / /