________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 89 न स्थिरज्ञानात्मकः संप्रज्ञातो योगः संस्कारक्षयकारणमिष्यते यतस्तस्य प्रधानधर्मत्वात्तत्क्षयान्मुक्तिः स्यात् / सोऽपि च तत्क्षयो ज्ञानादज्ञानाद्वा समाधेरिति पर्यनुयोगस्य समानत्वादनवस्थानमाशंक्यते। नापि पुरुषस्वरूपमात्रं समाधिर्येन तस्य नित्यत्वान्नित्यं मुक्तिरापाद्यते तदाविर्भावतिरोभावादन्यथा प्रधानवत्पुंसोऽपि परिणामसिद्धेः सर्वपरिणामीति स्याद्वादाश्रयणं प्रसज्येत, किं तर्हि ? विशिष्टं पुरुषस्वरूपमसंप्रज्ञातयोगः संस्कारक्षयकारणं / न च प्रतिज्ञाव्याघातस्तत्त्वज्ञानाजीवन्मुक्ते रास्थानांतकाले तत्त्वोपदेशघटनात्परमनिःश्रेयसस्य समाधिविशेषात्संस्कारक्षये प्रतिज्ञानादिति वदन्नन्धसर्पबिलप्रवेशन्यायेन स्याद्वादिदर्शनं समाश्रयतीत्युपदर्श्यते। कपिल कहता है कि हम स्थिर ज्ञान स्वरूप संप्रज्ञात योग को आयु नामक संस्कार के क्षय का कारण नहीं मानते हैं। जिससे कि उस संप्रज्ञात योग को प्रधान का धर्म (पर्याय) होने से उसके (संप्रज्ञात योग के) क्षय से मुक्ति मानी जावे। और प्रधान की पर्याय रूप उस संप्रज्ञात योग का क्षय भी प्रकृति के ज्ञान अथवा अज्ञान रूप समाधि परिणाम से क्षय होना स्वीकार करते-करते प्रश्न की समानता से अभिलाषायें बढ़ने पर अनवस्था दोष की शंका की जावे। तथा हम उस समाधि को केवल पुरुष स्वरूप भी नहीं मानते हैं जिससे कि पुरुष के कूटस्थ अनादि नित्य होने से मोक्ष के नित्य होने का प्रसंग आता हो। तथा हम आत्मा के तिरोभाव और आविर्भाव को भी नहीं मानते हैं। अन्यथा (यदि आविर्भाव और तिरोभाव को आत्मा का स्वभाव मानते तो) प्रकृति के समान आत्मा के भी पर्यायों का होना सिद्ध हो जाता तब "और सब पदार्थ परिणामी हैं" ऐसे स्याद्वादियों के कथन को स्वीकार या आश्रय करने का प्रसंग भी हमारे ऊपर जड़ दिया जाता। जैनाचार्य पूछते हैं -तब तुम्हारा मन्तव्य क्या है? उत्तर - पुरुष का विशिष्ट स्वरूप ही असंप्रज्ञात योग है। वही संसार के क्षय का कारण है। और ऐसा मानने पर 'ज्ञान से ही मोक्ष होता है। इस प्रतिज्ञा का व्याघात भी नहीं होता है। क्योंकि तत्त्वज्ञान से जीवन्मुक्ति होना हमको नितान्त इष्ट है। और अवस्थान के अन्तकाल तक योगी के तत्त्वोपदेश भी घटित होता है। अन्त में अतिशययुक्त समाधि से आयु ज्ञानादि संस्कारों के क्षय हो जाने से परम मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं। यही परम तत्त्वज्ञान से मोक्ष होने की प्रतिज्ञा है। भावार्थ - मोक्ष दो प्रकार का है- एक अपर मोक्ष और दूसरा पर मोक्ष। प्रथम- अपर मोक्ष जिसमें आयु के संस्कार क्षय नहीं होने से कुछ काल तक सर्वज्ञ संसार में रहते हैं और तत्त्व का उपदेश देते हैं और अन्त में असंप्रज्ञात योग से (परमसमाधि विशेष से) आयु कर्म रूप संस्कारों का क्षय कर परम मोक्ष को प्राप्त होते हैं। अतः तत्त्वज्ञान से मोक्ष होता है, यह सिद्ध होता है। ___ इसके प्रति जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कहने वाला (सांख्य) भी ‘अन्धसर्प-बिल प्रवेश' न्याय से स्याद्वादियों के सिद्धान्त का ही आश्रय ले रहा है। इसी बात को दिखाते हैं