________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-६९ न हि पयोनिधेरंभःकुंभादिसंख्यानानि स्वयं परैरज्ञानमानतयोपगतानि न सन्ति येन तैर्व्यभिचारि ज्ञापकानुपलम्भनं न स्यात् / समुद्राम्भः कुम्भादिसंख्यानं बहुम्भस्त्वात् कूपांभोवदित्यनुमानात् / न तेषामज्ञायमानतेतिचेत्, नातो विशेषेणासिद्धेस्तत्संख्यातमात्रेण व्यभिचाराचोदनात् / एतेनार्थापत्त्युपमानाभ्यां ज्ञायमानता प्रत्युक्ता। चोदनातस्तत्प्रसिद्धिरितिचेत् / न। तस्याः कार्यार्थादन्यत्र प्रमाणतानिष्टेः। परेषां तु तानि संतीत्यागमात्प्रतिपत्तेर्युक्तं तैर्व्यभिचारचोदनम् / समुद्र के जल की घड़ों से मापने की संख्या को मीमांसकों ने स्वयं नहीं जानने योग्य स्वीकार किया है। इतने स्वीकार करने मात्र से समुद्र के जल के घड़ों की संख्या नहीं है जिससे ज्ञापकानुपलम्भन हेतु व्यभिचारी न हो, ऐसा नहीं है, अर्थात् आपका न जानना हेतु वस्तु के अभाव का साधक नहीं हो सकता। ___ कुए के पानी के समान बहुत सा पानी होने से समुद्र का जल घड़े आदि से मापा जा सकता है। इस अनुमान से समुद्र के जल का ज्ञापकानुपलंभन हेतु है। अतः यह उनका हेतु अज्ञायमान नहीं है। इस प्रकार बौद्धों का कथन उचित नहीं है। क्योंकि पूर्वोक्त अनुमान से विशेष रूप से संख्या की असिद्धि होने से संख्यातमात्र से व्यभिचार नहीं आता है। भावार्थ - पूर्वोक्त अनुमान से केवल समुद्रजल के घड़ों की सामान्य संख्या सिद्ध हो सकती है, विशेष रूप से संख्या सिद्ध नहीं होती है। अतः ज्ञापकानुपलंभन हेतु समुद्र के जल की विशेष घड़ों की संख्या में चले जाने से और नास्तिरूप साध्य के न रहने से अनैकान्त हेत्वाभास है। - "अर्थापत्ति और उपमान प्रमाण से समुद्र के जल के घड़ों की संख्याओं का ज्ञान हो सकता है, अत: ज्ञापक प्रमाण का उपलम्भ है" इस प्रकार के मीमांसक के कथन का भी पूर्वोक्त हेतु से खण्डन हो जाता है- क्योंकि अर्थापत्ति और उपमान प्रमाण से समुद्र के जल को घड़ों से मापना शक्य नहीं विधिलिंङ् वाले आगम प्रमाण रूप वेदवाक्यों से समुद्र के जल का घड़ों के द्वारा माप सिद्ध हो जायेगा, ऐसा कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि मीमांसक दर्शन में अग्निहोत्रादि कर्मकाण्डरूप अर्थ के सिवाय वेद के वाक्यों को प्रमाण स्वीकार नहीं किया है। परन्तु स्याद्वाद सिद्धान्त में तो आगम प्रमाण से समुद्र के जल, गहराई आदि का निश्चय कर लिया जाता है- अर्थात् सर्वज्ञकथित आगम प्रमाण से समुद्र जल कितना है, उसकी गहराई कितनी है, आदि का ज्ञान कर लिया जाता है। इसलिए सर्वज्ञ के अभाव को सिद्ध करने के लिए मीमांसक के द्वारा प्रयुक्त ज्ञापकानुपलंभन हेतु समुद्र के जलघड़ों की संख्याओं के द्वारा व्यभिचार की प्रेरणा करना (अनैकान्त हेत्वाभास कहना) ठीक ही है।