________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक -72 तेषामशेषनृज्ञाने स्मृते तज्ज्ञापके क्षणे। जायते नास्तिताज्ञानं मानसं तत्र नान्यथा // 22 // न वाशेषनरज्ञानं सकृत्साक्षादुपेयते। न क्रमादन्यसंतानप्रत्यक्षत्वानभीष्टितः // 23 // यदा च क्वचिदेकत्र तदेतन्नास्तितामतिः। नैवान्यत्र तदा सास्ति क्वैवं सर्वत्र नास्तिता?॥२४॥ प्रमाणांतरतोऽप्येषां न सर्वपुरुषग्रहः। तल्लिंगादेरसिद्धत्वात् सहोदीरितदूषणात् // 25 // तज्ज्ञापकोपलंभोऽपि सिद्धः पूर्वं न जातुचित् / यस्य स्मृतौ प्रजायेत नास्तिताज्ञानमंजसा // 26 // इस अभाव ज्ञान को मानने वाले मीमांसकों के सर्वज्ञज्ञापक प्रमाणों के (उपलम्भ का नास्तित्व) अनुपलम्भ मन इन्द्रिय के द्वारा तभी ज्ञात हो सकता है जबकि अभाव के आधारभूत सम्पूर्ण मनुष्यों का ज्ञान किया जाय, और उस समय ज्ञापक प्रमाणों का स्मरण किया जाये। अन्यथा ज्ञापक प्रमाणों की नास्तिताका ज्ञान कैसे भी नहीं हो सकता है। अर्थात् अभाव ज्ञान की सिद्धि नहीं हो सकती है।॥२२॥ अभाव के आधारभूत सम्पूर्ण नरज्ञान (आत्माओं का ज्ञान) एक साथ एक समय में प्रत्यक्ष हो जाना तो मीमांसक स्वीकार नहीं करते हैं। और क्रम-क्रम से भी अन्य सम्पूर्ण आत्माओं का प्रत्यक्ष होना भी आपको अभीष्ट नहीं है। अर्थात् क्रम से भी अन्य संतान (आत्मा) प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय कैसे हो सकता है।॥२३॥ अतः सर्वज्ञ के अभाव में अन्य आत्माओं को जानने का दूसरा कोई उपाय नहीं है। जिस समय किसी एक आत्मा में ज्ञापकोपलंभ की नास्तिता का ज्ञान होगा, उस समय अन्यत्र (दूसरी आत्माओं में) उसके नास्तित्व का ज्ञान आपको कैसे हो सकेगा। अतः सर्वत्र ज्ञापकोपलंभ का नास्तिपना कहाँ सिद्ध हो सकता है? // 24 // इन मीमांसकों के ज्ञापकोपलंभ रूप निषेध्य के आधारभूत सम्पूर्ण पुरुषों का ग्रहण अन्य अनुमान, अर्थापत्ति आदि प्रमाणों से भी नहीं हो सकता है। क्योंकि उन अनुमान आदि ज्ञान के साथ अविनाभाव रखने वाले लिंग (हेतु) सादृश्य आदि की असिद्धि है। अर्थात् अनुमान ज्ञान को सिद्ध करने वाले हेतु का अभाव है। अतः जैसे अनेक पुरुषों को क्रम से प्रत्यक्ष जानने में जो दूषण आते हैं, वे ही दोष अनुमान आदि के द्वारा उन पुरुषों को जानने में आते हैं॥२५॥ सर्वज्ञ के ज्ञापक प्रमाणों का उपलंभ होना पहले कभी सिद्ध नहीं हुआ है, जिसका स्मरण करने पर ज्ञापकोपलंभ की नास्तिता का निर्दोष ज्ञान हो सके॥२६॥