________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 65 स धर्मशब्देनोच्यते / न केवलं लोके, वेदेऽपि “यज्ञेन यज्ञमयजंत देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्निति" यजतिशब्दवाच्य एवार्थे धर्मशब्दं समामनंतीति 'शबराः'। सोऽयं यथार्थनामा शिष्टविचारबहिर्भूतत्वात्। न हि शिष्टाः क्वचिद् धर्माधर्मव्यपदेशमात्रादेव श्रेयस्करत्वमश्रेयस्करत्वं वा प्रतियंति, तस्य व्यभिचारात् / क्वचिदश्रेयस्करेऽपि हि धर्मव्यपदेशो दृष्टो यथा मांसविक्रयिणां मांसदाने। श्रेयस्करेऽपि वाऽधर्मव्यपदेशो, यथा संन्यासे स्वघाती पापकर्मेति तद्विधायिनि कैशिद्भाषणात् / सर्वैर्यस्य धर्मव्यपदेशः प्रतिपद्यते स श्रेयस्करो नान्य इति चेत् / तर्हि न यागः श्रेयस्करस्तस्य सौगतादिभिरधर्मत्वेदन व्यपदिश्यमानत्वात्। - सकलैर्वेदवादिभिर्यागस्य धर्मत्वेन व्यपदिश्यमानत्वाच्छ्रेयस्करत्वे सर्वैः खारपटिकैः सधनवधस्य धर्मत्वेन व्यपदिश्यमानतया श्रेयस्करत्वं किं न भवेत्, यतः श्रेयोर्थिनां संविहितानुष्ठानं 'अनेक देवता यज्ञ की विधि से यज्ञ की पूजा करते थे, अत: वह यज्ञ ही सर्व प्रथम (प्रधान) धर्म है।' इस प्रकार लोक और वेद का नियम सिद्ध है। यज् धातु के यज्ञ रूप वाच्य अर्थ में ही धर्म शब्द अनादिकालीन प्राचीन ऋषिधारा से प्रयुक्त किया हुआ चला आ रहा है अतः यज्ञ ही धर्म है। ऐसा शबर ऋषि का मत है। . जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कहने वाला शबर शिष्टविचार से बहिर्भूत होने से यथार्थ नाम वाला शबर है। क्योंकि जो शिष्ट पुरुष हैं, वे धर्म और अधर्म के नाम मात्र से ही कल्याणकारी है या अकल्याणकारी है- ऐसा विश्वास नहीं करते हैं। अर्थात् 'धर्म' ऐसा नाम सुनकर ही यह कल्याणकारी है, इसका विश्वास नहीं करते हैं। क्योंकि अविचारी अज्ञानी पुरुषों के द्वारा उच्चरित धर्म शब्द की श्रेयस्करत्व के साथ और अधर्म शब्द की अश्रेयस्करत्व के साथ व्याप्ति नहीं है क्योंकि इसमें व्यभिचार है। क्योंकि कहीं-कहीं पाप करने वाले कर्म में भी धर्म शब्द का प्रयोग देखा जाता है; जैसे मांस, मंद्य बेचनेवालों के यहाँ महापाप के कारण मांस के आदान-प्रदान को भी धर्म कह दिया जाता है। अर्थात् मांस बेचना इसका धर्म (कार्य) है ऐसा कहा जाता है। कहीं पर कल्याणकारी कार्य में भी अधर्म शब्द का व्यपदेश होता है। जैसे समाधिमरण करने में आत्मघातीपना एवं पाप है, ऐसा कोई कहते हैं। अर्थात् अच्छे कार्यों को पाप और बुरे कार्यों को पुण्यवर्द्धक कहते हैं। अतः हिंसाजन्य यज्ञ को श्रेयस्कर कहने वाला शबर ऋषि सज्जन नहीं है। ..'जिसको सर्व लोग धर्म कहते हैं- वह श्रेयस्कर है, जिसको सब लोग धर्म नहीं कहते हैंवह श्रेयस्कर नहीं है। ऐसा कहने पर तो याग (अग्निहोत्रादि कार्य) श्रेयस्कर नहीं हो सकता क्योंकि सौगत आदि अग्निहोत्रादि यज्ञ को अधर्म कहते हैं। अर्थात् बौद्ध, जैन, चार्वाक आदि मतों में यज्ञ को धर्म नहीं माना है। ___ * यदि वेद के अनुसार चलने वाले सर्व मीमांसक आदि यज्ञ को धर्म मानते हैं क्योंकि यज्ञ कल्याणकारी है तब तो सर्व खारपटिक मतानुयायी धनवान के वध करने को धर्म कहते हैं अतः धनिकों