________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-६४ विधिपूर्वकस्य पश्चादिवधस्य विहितानुष्ठानत्वेन हिंसाहेतुत्वाभावात् असिद्धो हेतुरिति चेत्, तर्हि विधिपूर्वकस्य सधनवधस्य खारपटिकानां विहितानुष्ठानत्वेन हिंसाहेतुत्वं माभूदिति सधनवधात्स्वर्गो भवतीति वचनं . प्रमाणमस्तु / तस्याप्यैहिकप्रत्यवायपरिहारसमर्थेतिकर्तव्यतालक्षणविधिपूर्वकत्वाविशेषात् / न हि वेदविहितमेव विहितानुष्ठानं, न पुनः खरपटशास्त्रविहितमित्यत्र प्रमाणमस्ति / यांग: श्रेयोऽर्थिनां विहितानुष्ठानं श्रेयस्करत्वान्न सधनवधस्तद्विपरीतत्वादिति चेत् / कुतो यांगस्य श्रेयस्करत्वं? धर्मशब्देनोच्यमानत्वात् / यो हि यागमनुतिष्ठति तं 'धार्मिक' इति समाचक्षते / यक्ष यस्य कर्ता स तेन समाख्यायते यथा याचको लावक इति / तेन यः पुरुषं निःश्रेयसेन संयुनक्ति वेदविहित अनुष्ठान के द्वारा विधिपूर्वक किये गये पशु के वध में हिंसा के कारण का अभाव है- अतः 'अग्निहोत्र हिंसा का साधन होने से स्वर्ग का कारण नहीं है' यह हिंसा हेतुत्व साधन असिद्ध हेत्वाभास है, ऐसा कहने पर तो खारपटिकों के मत में कथित विहित अनुष्ठान के द्वारा विधिपूर्वक धनवान के वध में भी हिंसा नहीं होगी-वह हिंसा का कारण नहीं होगा अतः 'विधिपूर्वक धनवान को मारनेपर स्वर्ग होता है' यह वचन भी प्रमाणीभूत हो जायेगा। ___ अनेक पुरुषों का यह कथन है कि धनवान पुरुष ही अनर्थ करते हैं- अतः खारपटिक मत के अनुसार धनिकों (धनवानों) का वध करना (मारना) इन लौकिक पापाचारों को दूर करने में समर्थ है। इस प्रकार कर्तव्यता लक्षण विधिपूर्वकता अग्निहोत्र में और धनवानों के वध करने में समान ही है। अर्थात् अग्निहोत्र में पशुवध करना और धनवानों को मारना दोनों समान ही है- क्योंकि धनवानों को मारने में भी कर्त्तव्यता लक्षण विधि का पालन है, अतः धनवानों को मारना भी स्वर्ग का कारण होगा। वेदवाक्य में कथित ही विहित अनुष्ठान है- अर्थात् ‘अग्निहोत्र वेदविहित शास्त्रोक्त क्रिया है'- उसमें पशुवध हिंसा का कारण नहीं है- किन्तु खारपटिक शास्त्र विहित धनवान का वध वेदविहित नहीं है अत: धनवान का वध हिंसा का कारण है। इस प्रकार के कथन में कोई प्रमाण नहीं है। क्योंकि दोनों ही समान रूप से हिंसा के कारण हैं। या तो दोनों प्रमाण होंगे या फिर दोनों अप्रमाण। 'अग्निहोत्र आदि कार्य वेदविहित कर्म हैं। वे कल्याण चाहने वाले के लिए श्रेयस्कर (कल्याणकारक) हैं। परन्तु धनवानों का वध करना वेदविहित अनुष्ठान नहीं होने से विपरीत है अर्थात् दुःख का कारण है।' इस प्रकार कहने वाले मीमांसक के प्रति जैनाचार्य कहते हैं कि याग (अग्निहोत्र आदि क्रिया) कल्याणकारी क्यों है? जो धर्म शब्द से कथित याग (अग्निहोत्र ज्योतिष्टोम) का अनुष्ठान करता है, उस अनुष्ठान को 'धार्मिक' ऐसा कहते हैं। अर्थात् जो पुरुष यज्ञ करता है- वह भी धार्मिक कहलाता है। क्योंकि जो जिसका कर्ता है- वह उस क्रिया के योग से उसी नाम वाला कहा जाता है। जैसे याचना करने वाला याचक और लूनने (काटने) वाला लावक कहलाता है। इसलिए जो यज्ञ आत्मा को स्वर्ग-मोक्ष रूप कल्याण के मार्ग से संयुक्त करता है, जोड़ता है- वह धर्म शब्द से कहा जाता है। यह नियम केवल लौकिक शब्दों में ही नहीं है, अपितु वेदवाक्यों में भी यही नियम है।