________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 55 सूक्ष्माद्यर्थोपदेशो हि तत्साक्षात्कर्तृपूर्वकः। परोपदेशलिंगाक्षानपेक्षावितथत्वतः // 9 // शीतं जलमित्याधुपदेशेनाक्षापेक्षेणावितथेन व्यभिचारोऽनुपचरिततत्साक्षात्कर्तृपूर्वकत्वस्य साध्यस्याभावेपि भावादवितथत्वस्य हेतोरुपचारतस्तत्साक्षात्कर्तृपूर्वकत्वसाधने स्वसिद्धांतविरोधात् / तत्सामान्यस्य साधने स्वाभिमतविशेषसिद्धौ प्रमाणांतरापेक्षणात्प्रकृतानुमानवैयापत्तिरिति न मंतव्यमक्षानपेक्षत्वविशेषणात्। सूक्ष्म आदि (सूक्ष्म - आकाश, परमाणु, धर्म द्रव्य आदि। देशव्यवहित - क्षीरसमुद्र, नन्दीश्वर द्वीप, मेरु आदि। कालविप्रकृष्ट - राम, रावण, चतुर्विंशति तीर्थंकर आदि। यह सूक्ष्म, विप्रकृष्ट और व्यवहित पदार्थ इन्द्रियों का विषय नहीं है, ज्ञेय है इसलिए केवलज्ञान का विषय है।) पदार्थों का उपदेश साक्षात् पदार्थों को प्रत्यक्ष करने वाले सर्वज्ञदेव के द्वारा ही प्रवृत्त हुआ है, क्योंकि दूसरों के उपदेश, अविनाभावी हेतु और इन्द्रियों की अपेक्षा न करता हुआ यह उपदेश (इनका कथन) सत्यार्थ है। अर्थात् सूक्ष्मादि पदार्थ किसी-न-किसी के ज्ञान का विषय अवश्य हैं ज्ञेय होने से, और उनका विषय करने वाला केवलजान है॥९॥ - शंका - जल ठंडा है, पुष्प सुगन्धित है-इत्यादि उपदेश भी इन्द्रियों की अपेक्षा रखते हुए सत्य हैं किन्तु मुख्य प्रत्यक्ष रूप केवलज्ञान से जानकर, उनको उपदेश नहीं दिया गया है। क्योंकि मुख्य प्रत्यक्ष केवलज्ञान के द्वारा साक्षात् करके पुन: उपदेश देने रूप साध्य के अभाव में भी निर्दोष हेतु का सद्भाव पाया जाता है। तथा यदि इस व्यभिचार को दूर करने के लिए सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष ज्ञान से जानने वाले वक्ता को प्रमाण मान कर ‘पानी ठंडा है' इत्यादि- उपदेशों में साध्य की सिद्धि करोगे तो स्व सिद्धान्त (जैन सिद्धान्त) का विरोध हो जाएगा, क्योंकि इस अनुमान में साध्य कोटि में मुख्य प्रत्यक्ष के द्वारा जानकर सूक्ष्म आदि पदार्थों के उपदेश देने का सिद्धान्त स्वीकार किया गया है। . यदि साध्य कोटि में स्थित प्रत्यक्ष का सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष एवं मुख्य प्रत्यक्ष यह भेद न करके सामान्य प्रत्यक्ष से जानकर उपदेश देने की सिद्धि करोगे तो सामान्य वक्ता की सिद्धि होगी अतः स्वाभिमत (केवलज्ञानी वक्ता) की सिद्धि में प्रमाणान्तर की अपेक्षा करनी पड़ेगी और सामान्य प्रत्यक्ष से जानकर उपदेश करने को साधने वाला प्रकरण-प्राप्त अनुमान व्यर्थ होगा। उत्तर- इन्द्रिय प्रत्यक्षजन्य उपदेश में निर्दोष हेतु को मानकर अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष में हेतु को अनैकान्तिक कहना उपयुक्त नहीं है। क्योंकि इन्द्रिय प्रत्यक्ष में इन्द्रियों की अपेक्षा है और अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष इन्द्रियनिरपेक्ष है। अतः इन्द्रिय अनपेक्ष विशेषण होने से हेतु व्यभिचारी नहीं है।