________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक- 34 तत एवोपयोगात्मकस्यात्मनः श्रेयसा योक्ष्यमाणस्य विनेयमुख्यस्य प्रतिपित्सायां सत्यां सूत्रं प्रवृत्तमित्युच्यते। सतोपि विनेयमुख्यस्य यथोक्तस्य प्रतिपित्साभावे श्रेयोधर्मप्रतिपत्तेरयोगात् प्रतिग्राहकत्वासिद्धेरिदानीं यावत्तत्सूत्रप्रवर्तनाघटनात्। प्रवृत्तं चेदं प्रमाणभूतं सूत्रं / तस्मात्सिद्धे यथोक्ते प्रणेतरि यथोदितप्रतिपित्सायां च सत्यामिति प्रत्येयम्। नन्वपौरुषेयाम्नायमूलत्वेपि जैमिन्यादिसूत्रस्य प्रमाणभूतत्वसिद्धेर्नेदं सर्वज्ञवीतदोषपुरुषप्रणेतृकं सिद्ध्यतीत्यारेकायामाह; नैकांताकृत्रिमाम्नायमूलत्वेस्य प्रमाणता। तद्व्याख्यातुरसर्वज्ञे रागित्वे विप्रलंभनात् // 4 // धाराप्रवाह से उस उपदेश के प्रवर्तन की अनुपपत्ति होती अर्थात् ग्रहण करने वाले शिष्य के अभाव में वह धाराप्रवाह से आज तक उपलब्ध नहीं हो सकती थी। इसलिए ही पूर्व वार्तिक में कहा गया है कि "ज्ञानदर्शन उपयोगात्मक आत्मा की कैवल्य प्राप्ति. रूप श्रेय (मोक्ष) से भविष्य में संयुक्त होने वाले शिष्यजनों में प्रधान (गणधरदेव) की तत्त्वों को वा मोक्षमार्ग को जानने की इच्छा होने पर ही यह सूत्र (सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः) प्रवृत्त हुआ है अर्थात् इस सूत्र की रचना हुई है। यथोक्त (भविष्य में कल्याण से युक्त होने वाले ज्ञानदर्शनोपयोगात्मक) प्रधान शिष्यों के विद्यमान होने पर भी, उनके मोक्षमार्ग को जानने की इच्छा के अभाव में कल्याणकारी धर्म की प्रतिपत्ति (श्रद्धान और ज्ञान) का अयोग (अभाव) होने से उसके ग्रहण करने वाले की भी सिद्धि नहीं हो सकती। अर्थात् श्रद्धान के अभाव में उपदिष्ट तत्त्व का ग्रहण भी नहीं हो सकता। तथा वीतराग सर्वज्ञ उपदिष्ट मोक्षमार्ग के ग्रहण करने वाले का अभाव होने से आजतक धाराप्रवाह से सूत्र की प्रवर्त्तना भी नहीं हो सकती परन्तु यह सत्य एवं प्रमाणभूत सूत्र धाराप्रवाह से आजतक चला आ रहा है। इसलिए भविष्य में कल्याण से संयुक्त होने वाले प्रधान शिष्यों के मोक्षमार्ग को जानने की प्रबल इच्छा होने पर सर्वज्ञ वीतराग मुनीन्द्रों से पूज्य प्रभु ने इस सूत्र का अर्थ रूप से प्रतिपादन किया है; ऐसा दृढ़ विश्वास करना चाहिए। अपौरुषेय वेद के वचन प्रमाण नहीं हैं __ अपौरुषेय आम्नाय है मूल जिसका ऐसे वेदादि को आधार मान कर 'अथातो धर्म व्याख्यास्यामः' 'यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः' इत्यादि जैमिनीय आदि ऋषियों के सूत्र के भी प्रमाणभूतता सिद्ध हो जाने से “यह सर्वज्ञ वीतराग पुरुष का कहा हुआ होने से निर्दोष है ऐसा सिद्ध नहीं होता" ऐसी शंका होने पर आचार्य विद्यानन्दी कहते हैं ___ एकान्त रूप से अकृत्रिम माने गये ऋग्वेद आदि आम्नाय को मूलपना मानने पर भी ‘अथातो धर्म व्याख्यास्यामः' आदि सूत्रों के प्रमाणपना नहीं है- क्योंकि इन सूत्रों का वक्ता असर्वज्ञ और रागी- द्वेषी होने से विपरीत प्रकार से तत्त्व का प्रतिपादन कर सकता है॥४॥