________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक- 41 अपौरुषेयायमार्थ निश्शयस्तद्वदस्तु। मन्वादेस्तव्याख्यातुस्तदर्थपरिज्ञानस्य तद्विषयरागद्वेषाभावस्य च प्रसिद्धत्वादिति चेत् न, प्रथमतः कस्यचिदतींद्रियवेदार्थपरिच्छेदिनो ऽनिष्टेरन्वर्थपरंपरातोर्थनिर्णयानुपपत्तेः। ननु च व्याकरणाद्यभ्यासाल्लौकिकपदार्थ निश्चये तदविशिष्ट वैदिकपदार्थनिश्शयस्य स्वतः सिद्धेः पदार्थप्रतिपत्तौ च तद्वाक्यार्थप्रतिपत्तिसंभवादश्रुतकाव्यादिवन्न वेदार्थनिश्शयेतींद्रियार्थदर्शी कशिदपेक्ष्यते, नाप्यंधपरंपरा यतस्तदर्थनिर्णयानुपपत्तिरिति चेत् / न। लौकिकवैदिकपदानामेकत्वेपि नानार्थत्वावस्थितेरेकार्थपरिहारेण व्याख्यांगमिति तस्यार्थस्य निगमयितुमशक्यत्वात् / प्रकरणादिभ्यस्तन्नियम इति चेन्न, तेषामप्यनेकधा पुनः मीमांसक कहते हैं कि जिस प्रकार मोक्षमार्ग के उपदेष्टा के द्वारा इस सूत्र के अर्थ का निश्चय होता है, उसी प्रकार अपौरुषेय आगम के अर्थ का निर्णय भी व्याख्याताओं से हो जायेगा क्योंकि उस अपौरुषेय वेद के अर्थ के व्याख्याता मनु आदि ऋषियों को उस वेद के अर्थ का पूर्ण परिज्ञान था और वेद के विषय में उनके रागद्वेष का अभाव प्रसिद्ध ही है? ग्रन्थकार कहते हैं कि आपका इस प्रकार का कथन ठीक नहीं है क्योंकि प्रथमतः अतीन्द्रिय वेदार्थ का ज्ञाता कोई (सर्वज्ञ) है, ऐसा आपको इष्ट नहीं है अतः अन्ध परम्परा से अर्थ के निर्णय की अनुपपत्ति है, अर्थात् सर्वज्ञ व्याख्याता के अभाव में कपोलकल्पित परम्परा से अर्थ का निर्णय नहीं हो सकता। . यहाँ मीमांसक का कहना है कि जिस प्रकार व्याकरण, छन्द, न्याय आदि के अभ्यास से लौकिक पदों के (गौ, घटः, गजः आदि पदों के) अर्थ का निश्चय होता है, उसी प्रकार लौकिक वाक्यों से वेदवाक्यों में विशिष्टता न होने से वैदिक वाक्यों के अर्थ का निर्णय भी स्वतः सिद्ध है। क्योंकि जिस प्रकार नहीं सुने हुए काव्यादि के पदों के अर्थ की प्रतिपत्ति (ज्ञान) हो जाने पर उसके वाक्यों के अर्थज्ञान की संभवता हैअर्थात् जैसे मानव एक-दो काव्य पढ़कर व्याकरण और कोश ज्ञान के अभ्यास से नहीं सुने हुए और नहीं पढ़े हुए अन्य काव्यों के अर्थ को अपने आप लगा लेता है, उसी प्रकार व्याकरण छन्द आदि के अभ्यास से ज्ञानी वेदवाक्यार्थ स्वयं जान लेता है अत: वेदार्थ का निश्चय करने के लिए अतीन्द्रियदर्शी (सर्वज्ञ) की कोई अपेक्षा नहीं है। अर्थात् सर्वज्ञ ही वेद के वाक्यों का ज्ञाता होता है, ऐसा नहीं है। और विद्वानों के द्वारा वेदवाक्यों के अर्थ का निर्णय होना मानने पर अन्धों की परम्परा भी नहीं है, जिससे वेदवाक्यार्थ का निर्णय न हो। ____आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार वेदवाक्यों को अपौरुषेय सिद्ध करने के लिए दिये गये उदाहरण ठीक नहीं हैं- क्योंकि लौकिक (लोक व्यवहार में आने वाले गौ घट आदि पदों में) और वैदिक पदों (अग्निमीडे पुरोहितं यजेत) में एकत्व (समानता) होने पर भी वेदवाक्यों में नाना (अनेक) अर्थों की व्यवस्था होने से एक अर्थ को छोड़कर दूसरे इष्ट अर्थ में ही कारण बताकर उसकी व्याख्या करनी चाहिए, अन्य अर्थ में नहीं। अर्थात् 'सैन्धव' शब्द का ‘सैन्धव देश का घोड़ा' 'नमक' आदि अनेक अर्थों में प्रयोग होने से इसका अर्थ घोड़ा ही होना चाहिए, ऐसी एकार्थ में अवधारणा करना शक्य नहीं है, उसी प्रकार वेदवाक्यों के भी अनेक अर्थ होने से 'इस शब्द का यही अर्थ है' ऐसी अवधारणा करना शक्य नहीं है।