________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 48 कथमनिश्चितं स्वतः सिद्धं नाम येन स्वरूपस्य स्वतो गतिर्व्यवतिष्ठे तेति क्वायं तिष्ठेद्विप्रकृष्टसंशयवादी। अनाद्यविधातृष्णाक्षयादद्वयसंवेदने विभ्रमाभावो न निश्शयोत्पादात् सकलकल्पनाविकल्पत्वात्तस्येति चेत्, सा तहविद्या तृष्णा च यधुपलभ्यस्वभावा तदा न संवेदनाद्वैतं तस्यास्ततोन्यस्याः प्रसिद्धः / सानुपलभ्यस्वभावा चेत्, कुतस्तद्भावाभावनिशयो यतो ह्यद्वयसंवेदने विभ्रमाविभ्रमव्यवस्था। निरंशसंवेदनसिद्धिरेवाविद्यातृष्णानिवृत्तिसिद्धिरित्यपि न सम्यक् / विप्रकृष्टेतरस्वभावयोरर्थयोरेकतरसिद्धावन्यतरसद्भावासद्भावसिद्धरयोगात् / कथमन्यथा व्याहारादिविशेषोपलंभात्कस्यचिद्विज्ञानाद्यतिशयसद्भावो न सिद्धयेत्। यदि योगाचार कहे कि स्वयं जानने योग्य पदार्थ के भी निश्चयात्मक ज्ञान के अभाव से विभ्रम होता है, तो जिस वस्तु का निश्चय नहीं है वह वस्तु स्वतः ज्ञात होकर सिद्ध हो सकती है यह कैसे कहा जाय? जिससे कि स्वरूप (संवेदन के स्वरूप) का स्वतः ज्ञान व्यवस्थित हो सके अतः विप्रकृष्ट पदार्थों में संशय का कथन करने वाले बौद्ध की स्थिति कहाँ रह सकती है? / यदि (बौद्ध) कहे कि ज्ञानाद्वैत के ज्ञान में अनादि अविद्या (मिथ्याज्ञान) और तृष्णा के क्षय हो जाने से विभ्रम का अभाव होता है, सकल कल्पनाओं से रहित (निर्विकल्प)होने से उस ज्ञानाद्वैत संवेदन का निश्चय के उत्पन्न हो जाने से विभ्रम का अभाव नहीं होता (अर्थात् अद्वैत संवेदन कल्पनाओं से रहित है अत: उसका निश्चय नहीं हो सकता) तो हम पूछते हैं कि वह तृष्णा (वाञ्छा) और अविद्या उपलभ्य स्वभाव है कि अनुपलभ्य स्वभाव है? यदि वह अविद्या और तृष्णा उपलभ्य स्वभाव है तो संवेदनाद्वैत की सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि संवेदनाद्वैत से भिन्न अविद्या एवं तृष्णा की प्रसिद्धि है। अर्थात् तृष्णा और अविद्या का भी अनुभव हो रहा है। यदि कहो कि अविद्या और तृष्णा अनुपलभ्य स्वभाव (जानने योग्य नहीं) है, तो उस अविद्या और तृष्णा के सद्भाव तथा अभाव का निर्णय कैसे होगा? जिससे अद्वैतसंवेदन में अविभ्रम (सत्य) और विभ्रम (असत्य) की व्यवस्था की जावे। बौद्ध कहते हैं कि “निरंश (प्रमेय, प्रमाता, प्रमिति, वा ग्राह्य, ग्राहक, ज्ञप्ति इन तीनों अंशों से रहित) शुद्ध संवेदन की सिद्धि हो जाने पर अविद्या और तृष्णा की निवृत्ति की सिद्धि होती है" सो उनका यह कहना भी उचित नहीं है-(सम्यक् नहीं है) क्योंकि विप्रकृष्ट (अत्यन्त परोक्ष) और प्रत्यक्ष स्वभाव वाले दो पदार्थों में से किसी एक पदार्थ की सिद्धि हो जाने पर दूसरे पदार्थ की सत्ता या असत्ता सिद्ध नहीं हो सकती है। अन्यथा यदि संवेदनाद्वैत की सिद्धि हो जाने से अविद्या और तृष्णा के अभाव की सिद्धि हो जायेगी तो व्यवहारादि (विशिष्ट वचनों का उच्चारण, चेष्टादि) विशेष कारणों की उपलब्धि से किसी आत्मा के विज्ञानादि (वीतरागता, सर्वज्ञता, हितोपदेशीपन) अतिशयों के सद्भाव की सिद्धि क्यों नहीं होगी? अवश्य ही होगी।