________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 42 प्रवृत्ते:पंचसंधानादिवदेकार्थस्य व्यवस्थानायोगात्। यदि पुनर्वेदवाक्यानि सनिबंधनान्येवानादिकालप्रवृत्तानि न व्याख्यानांतरापेक्षाणि देशभाषावदिति मतं, तदा कुतो व्याख्याविप्रतिपत्तयस्तत्र भवेयुः। प्रतिपत्तुर्मांद्यादिति चेत् / क्वेयं तदर्थसंप्रतिपत्तिरमंदस्य प्रतिपत्तुर्जातुचिदसंभवात् / सातिशयप्रज्ञो मन्वादिस्तत्प्रतिपत्ता संप्रतिपत्तिहेतुरस्त्येवेति चेत् / कुतस्तस्य तादृशः प्रज्ञातिशयः? श्रुत्यर्थस्मृत्यतिशयादिति चेत्। सोपि कुतः। पूर्वजन्मनि श्रुत्यभ्यासादिति चेत्, स तस्य स्वतोऽन्यतो वा? स्वतश्चेत् सर्वस्य स्यात् तस्यादृष्टविशेषाद्वेदाभ्यास: स्वतो युक्तो न सर्वस्य तदभावादिति चेत् कुतोस्यैवादृष्टविशेषस्तादृग्वेदानुष्ठानादिति चेत् / तर्हि स वेदार्थस्य स्वयं ज्ञातस्यानुष्ठाता प्रकरण, बुद्धि आदि से एकार्थ की (विवक्षित अर्थ की) अवधारणा हो जाती है; ऐसा भी कहना उचित नहीं है क्योंकि प्रकरण आदि की भी पंच संधान' आदि के समान अनेक अर्थों में प्रवृत्ति होने से प्रकरण आदि के द्वारा अनेक अर्थों के प्रतिपादक वैदिक शब्दों की एक ही अर्थ में व्यवस्था करने का अयोग है अर्थात् एक ही अर्थ में व्यवस्था नहीं हो सकती। यदि पुनः देशभाषा के समान अनादि काल से प्रवृत्त अपने निरुक्त, कल्प, छन्द, व्याकरण, ज्योतिष, शिक्षा आदि अंगों से सनिबद्ध वेदवाक्य व्याख्यानान्तर (भिन्न-भिन्न अर्थों) की अपेक्षा नहीं करते हैं, ऐसा मानते हो तो उन वेदवाक्यों में व्याख्याओं का विवाद क्यों है। चार्वाक “अन्नाद्वै पुरुषः" आदि श्रुतियों से अपना मत पुष्ट कर रहा है। अद्वैतवादी उन ही मंत्रों का अर्थ परम ब्रह्म करते हैं। मीमांसक भावनारूप और नियोग अर्थ में परस्पर विवाद करते हैं। अत: व्याख्याताओं का परस्पर विवाद होने से वेदवाक्यों का अर्थ एक नियत नहीं है। यदि कहो कि वेद के अर्थ को जानने वाले पुरुषों के ज्ञान की मन्दता से परस्पर विवाद होता है तो वह ज्ञान की अमन्दता (परिपूर्णता) वा वेदवाक्यों के अर्थ का निर्णय किसमें है, कहाँ है? क्योंकि ऐसा सर्वज्ञ किसी समय हो सकता है, यह तो आपने असम्भव माना है। अर्थात् आप वास्तविक अर्थ को पूर्ण रूप से जानने वाले सर्वज्ञ को तो मानते नहीं हैं। यदि कहो कि वेदवाक्यों को जानने वाले सातिशय बुद्धिमान मनु आदि ऋषि हैं अर्थात् वेद वाक्यों के अर्थ का निर्णय मनु आदि ऋषियों ने किया है, वे ही समीचीन अर्थनिर्णय में कारण हैं तो हम पूछते हैं कि उन मनु आदि ऋषियों की बुद्धि में वैसा सूक्ष्म एवं त्रैकालिक पदार्थों को जानने का अतिशय कहाँ से आया? यदि कहो कि वेद के अर्थों का पूर्ण स्मरण रखने के अतिशय से उनकी प्रज्ञा का अतिशय हुआ है तो वेदों के अर्थ को स्मरण रखने का अतिशय भी उन ऋषियों में कैसे आया? यदि कहो कि मनु आदि को श्रुति के अर्थ-स्मरण की विशिष्टता पूर्व जन्म में किये हुए श्रुति के अभ्यास से आई है तो प्रश्न है कि वह मनु आदि के पूर्व जन्म का श्रुताभ्यास स्वयं अपने आप किया हुआ है कि अन्य किसी (गुरु) की सहायता से- यदि स्वत: वेद का अभ्यास करने से प्रज्ञातिशय प्राप्त हुआ है ऐसा मानते हो 1. एक श्लोक के पाँच अर्थ होते हैं। उसको पंचसंधान कहते हैं, इसी प्रकार द्विसंधान, सप्तसंधान, चतुर्विंशति संधान इत्यादि। 2. इंगलिश, संस्कृत आदि भाषाएँ अनादि काल से अपने-अपने विषयों में निबद्ध हैं। जैसे इंगलिश में सन-सूर्य और हिन्दी में सन-रस्सी बनाने योग्य पाट आदि।