________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 10 प्रयुक्तमवगम्यते / ननु किमर्थमिदं प्रयुज्यते? श्रोतृजनानां प्रवर्तनार्थमिति चेत्, ते यदि श्रद्धानुसारिणस्तदा व्यर्थस्तत्प्रयोगस्तमंतरेणापि यथाकथंचित् तेषां शास्त्रश्रवणे प्रवर्तयितुं शक्यत्वात् / यदि प्रेक्षावंतस्ते तदा कथमप्रमाणकाद्वाक्यात्प्रवर्तन्ते प्रेक्षावत्त्वविरोधादिति केचित् / तदसारं। प्रयोजनवाक्यस्य सप्रमाणकत्वनिश्चयात्। प्रवचनानुमानमूलं हि शास्त्रकारास्तत्प्रथम प्रयंजते नान्यथा, अनादेयवचनत्वप्रसंगात। तथाविधाच्च। ततः श्रद्धानुसारिणां प्रेक्षावतां च प्रवत्तिर्न विरुध्यते। श्रद्धानुसारिणोपि ह्यागमादेव प्रवर्तयितुं शक्याः, न यथा कथंचित् प्रवचनोपदिष्टतत्त्वे श्रद्धामनुसरतां ___ श्रद्धानुसारित्वादन्यादृशामतिमूढमनस्कत्वात् तत्त्वार्थ श्रवणेऽनधिकृतत्वादतिविपर्यस्तवत् तेषां तदनुरूपोपदेशयोग्यत्वात् (यह ग्रन्थ) भी अविद्यास्पद माना जायेगा तो अतिप्रसंग दोष आयेगा। अत: 'श्रीवर्धमानः' यह जो प्रथम श्लोक है उसमें जो विद्यास्पद आदि विशेषण हैं वे परस्पर सप्रयोजनत्व के प्रतिपादन में प्रयुक्त किये। गये हैं, ऐसा जानना चाहिए / अर्थात् जो श्री से वर्द्धमान है, वह विद्यास्पद है और जो विद्यास्पद है, वह घातिकर्मों के समूह का घातक है, इत्यादि। हेतु और आगम - दोनों से आदिवाक्य - मंगलाचरण की स्थिति कोई प्रश्न करता है कि इस श्लोक के लिखने का क्या प्रयोजन है? यदि श्रोतागण की इसमें (इस ग्रन्थ में) प्रवृत्ति कराने के लिए यह लिखा गया है तो (श्रोता दो प्रकार के हैं श्रद्धालु और प्रेक्षावान्) यदि वे श्रद्धानुसारी हैं, तो उनके लिए प्रयोजन बतलाने वाले आदिश्लोक का कथन निरर्थक है। क्योंकि श्रद्धालु व्यक्ति को तो जिस किसी भी तरह शास्त्रश्रवण में प्रवृत्त कराना शक्य है। अर्थात् श्रद्धालु व्यक्ति को तो कैसे ही समझा कर के, शास्त्रश्रवण में प्रवृत्ति करा सकते हैं। और यदि श्रोता प्रेक्षावान् है, परीक्षाप्रधानी है, तो वह अप्रामाणिक वाक्य से शास्त्रश्रवण में प्रवृत्ति कैसे करेगा और यदि बिना विचारे प्रवृत्ति करेगा तो उसमें बुद्धिमत्ता कैसे रहेगी? क्योंकि बुद्धिमत्ता और यद्वा तद्वा प्रवृत्ति में परस्पर विरोध उत्तर - इस प्रकार की शंका में कोई सार नहीं है क्योंकि प्रयोजन बताने वाले आदि के वाक्यरूप श्लोक में सप्रमाणता निश्चित है। शास्त्रकार जिस आदिवाक्य का पहले प्रयोग करते हैं वह आगम और अनुमान दोनों प्रमाणों को मूल मान कर सिद्ध होना चाहिए अन्यथा अग्राह्यपने का प्रसंग आता है। यहाँ भी आचार्य महाराज का पहला वाक्य आगम और अनुमान के आधार पर है। अतः उस वाक्य से श्रद्धा के अनुसार चलने वाले आज्ञाप्रधानियों की प्रवृत्ति होने में कोई विरोध नहीं है। श्रद्धा के अनुसार चलने वाले आज्ञाप्रधानी श्रोताओं को भी आगमानुसार ही प्रवर्तन कराना शक्य है, चाहे जिस किसी भी शास्त्र के वाक्य में विश्वास कराना ठीक नहीं। प्रवचन के द्वारा उपदिष्टतत्त्व में श्रद्धा का अनुसरण करने वालों के ही श्रद्धानुसारित्व पाया जाता है। विपरीत समझ वाले अतिमूढमति होने से मिथ्यादृष्टियों का तत्त्वार्थ सुनने में अधिकार नहीं है। जैसे