Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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दीपिका निर्युक्तिश्च अ० १
जीवस्य षड्भाव निरूपणम् ५१
सति यथेष्टमुपतिष्ठते, वीर्यन्तु आत्मनोऽव्याहतशक्तिविशेषरूपं बोध्यम्, तच्च समस्तवीर्यान्तरायकर्म - क्षयादप्रतिहतं सामर्थ्यं भवति, सम्यक्त्वञ्चानन्तानुबन्धिकषाय मिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वदर्शन सप्तकात्यन्तिकक्षयाद् जीवादितत्त्वार्थश्रद्धान् लक्षणमप्रतिहतमसंहार्यमुपजायते, तथा च कषायचतुष्टय मिथ्यात्वमोहनीयमिश्रमोहनीयसम्यक्त्वमोहनीय इत्येतत्सप्तप्रकृतीनां क्षयात् क्षायिकसम्यक्त्वं जायते इति भावः । चारित्रं पुनः सकलमोहक्षयात् क्षायिकमानिभवति इत्येवं नवक्षायिकाभावा भवन्तीति भावः, यद्यप्यत्रापि अनुयोगद्वारसूत्रे षड्भावाधिकारेऽवक्ष्यमाणरीत्या क्षायिकस्य भावस्य बहवो भेदाः प्रतिपादिताः सन्ति तथापि संक्षेपेणैव प्रकृते तस्य वर्णिततया तेषां सर्वेषामपि उक्तनवविधेष्वेवान्तर्भावसंभवात् तथा चोक्तम् – “से किं तं खइए' ? खइए दुविहे पण्णत्ते तं जहा - खइए य, खयनिफण्य, से किं तं खइए २ अट्ठण्हं कम्मपयडीणं खएणं से तं खइए, से किं तं खयनिणे २१ अ गविहे पण्णत्ते तं जहा - उप्पण्णणाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली खीणआभिणिबोहियणाणावर खीणसुयणाणावरणे खीणओहिणाणावरणे खीणमणपज्जवणाणावरणे, खीणकेवलणाणावरणे अणावरणे, निरावरणे, खीणावरणे णाणावर णिज्जकम्मविष्पमुक्के केवलदंसी सव्वदंसीखी णणिदेखीणणिद्दाणिदे खीणपयलेखीणपयलापयले खीणथीण गिद्धीखीणचक्खु दंसणावरणेखीण अचक्खु दंसणावरणे खीण ओहि दंसणावर खीण केवल दंसणावरणे अणावरणे निरवणे खोणावरणे दरिसणावर णिज्जकम्म विप्पमुक्के
शुभ विषयक सुखानुभव भोग कहलाता है । यह सम्पूर्ण भोगान्तराय, कर्म के क्षय से उत्पन्न होता है । इसका कहीं प्रतिघात नहीं होता अर्थात् ऐसा कभी नहीं होता कि इष्ट की प्राप्ति न हो ।
विषय—सम्पत्ति की विद्यमानता में उत्तर गुणों के प्रकर्ष से विषय - सम्पत्ति का अनुभव करना उपभोग है । सम्पूर्ण उपभोगान्तराय कर्म के क्षय से यथेष्ट उपभोग की प्राप्ति होती है । आत्मा की कभी निरुद्ध न होने वाली शक्ति को वीर्य कहते हैं । सम्पूर्ण वीर्यान्तरण कर्म क्षय से अप्रतिहत सामर्थ्य की प्रप्ति होती है ।
अनन्तानुबंधी कषाय, मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्वमोहनीय, आदि इन सात प्रकृतियों के सर्वथा क्षय हो जाने पर जीवादि तत्त्वों का श्राद्ध न उत्पन्न होना क्षायिक सम्यकत्त्व है । यह सम्यक्त्व एक बार उत्पन्न होने के पश्चात् नष्ट नहीं होता । तात्पर्य यह है कि चार अनन्तानुबंधी कषाय मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्र मोहनीय और सम्यक्त्वमोहनीय, इन सात प्रकृतियों के क्षायिक सम्यक्त्व की उत्पत्ति होती है । समस्त मोहनीय कर्म के क्षय से क्षायिक चारित्र प्रकट होता है। ये नौ क्षायिक भाव हैं । यद्यपि अनुयोग द्वारा सूत्र में छह भावों के प्रकरण में क्षायिक भाव के बहुत से भेद प्रतिपादित किये गये हैं, किन्तु यहाँ संक्षेप में ही वर्णन किया गया है, अतएव उन सब का नौ भेदों में समावेश हो जाता है । कहा भी है
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧