Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
दीपिकानिर्युक्तिश्च अ०१
जीवस्य षड्भावनिरूपणम् ४९
कृष्णलेश्यो यावत् शुक्ललेश्यः मिथ्या दृष्टि अविरतः असंज्ञी अज्ञानी, आहारकः छमस्थः सयोगी संसारस्थ : असिद्ध:, स एष जीवोदयनिष्पन्नः ।
अथ कस्तावद् अजीवोदयनिष्पन्नः ? अजीवोदयनिष्पन्न अनेकविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - औदारिकं वा शरीरम्, औदारिकशरीर प्रयोगपारिणामिकं वा द्रव्यम् वैक्रियं वा शरीरम् वैक्रियशरीरप्रयोगपरिणामिकं वा द्रव्यम्, एवमाहारकं शरीरम् तैजसं शरीरम्, कार्मणशरीरम् च भणितव्यम्, प्रयोग पारिणामिकों वर्णो गन्धो रसः स्पर्शः स एषः अजीवोदयनिष्पन्नः, स एष उदयनिष्पन्नः स एष औदयिक इति ।
औपशमिकस्य भावस्य संक्षेपेण द्वौ भेदौ स्तः सम्यक्त्वं, चारित्रञ्चेति अत्रापि अनुयोगद्वारसूत्रे षड्भावाधिकारे यद्यपि वक्ष्यमाणरीत्या औपशमिकभावस्य बहवो भेदाः प्रतिपादिताः सन्ति तथापि सूत्रेऽस्मिन् संक्षेपेणेव वर्णितत्वेन सम्यक्त्व चारित्ररूपद्वैविध्यमध्ये - एवं तेषां सर्वेषामपि अन्तर्भावो बोध्यः तथा चोक्तं तत्र - " से किं तं उवसमिए ? उवसमिए दुविहे पण ते ते जहा - उसमे य, उवसमनिप्फण्णे य से किं तं उवसमे ? उवसमे मोहणिज्जस्स कम्मस्स उवसमेणं, से तं उवसमे से किं तं उवसमनिफ्फण्णे २, । अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहाउवसंतको जावउवसंतलोभे, उवसंतपेज्जे उवसंत दोसे, उवसंतदंसणमोहणिज्जे उवसंतमोहणिज्जे, उवसमिआ सम्मत्तलद्धी, उवसमिआ चरित्तलद्धी, उवसंतकसाय छउमत्थवीयरागे, से तं उवसमनिफ्फण्णे, से तं उवसमिए" इति
-
वेदक, पुरुषवेदक, नपुंसकवेदक, कृष्णलेश्यावान् यावत् शुक्ललेश्यावान् मिथ्यादृष्टि, अविरत, असंज्ञी अज्ञानी आहारक छद्मस्थ सयोगी संसारस्थ असिद्ध यह जीवोदय निष्पन्न है ।
अब अजीवोदयनिष्पन्न क्या है ? वह भी अनेक प्रकार का कहा गया है यथा- औदारिक शरीर औदारिकशरीरप्रयोगपारिणामिक द्रव्य वैक्रिय शरीर वैक्रिय शरीर प्रयोगपारिणामिक द्रव्य इसी प्रकार आहारक शरीर तैजस शरीर कार्मण शरीर भी कह लेना चाहिए । प्रयोग परिणामिक वर्ण गंध रस स्पर्श यह सब अजीवोदय निष्पन्न है । यह उदयनिष्पन्न का वर्णन समाप्त हुआ और साथ ही औदयिकभाव का प्रतिपादन भी पूर्ण हुआ ।
औपशमिकभाव संक्षेप से 'दो प्रकार का है - सम्यक्त्व और चारित्र । अनुयोगद्वारसूत्र में औपशमिकभाव के भी अनेक भेद कहे गए हैं किन्तु इस सूत्र में संक्षेप में ही वर्णन है अतः सम्यक्त्व और चरित्र - इन दो भेदों में ही उनसबका अन्तर्भाव समझ लेना चाहिए । अनुयोग द्वार में कहा हैऔपशमिक भाव कितने प्रकार का है ? औपशमिक भाव दो प्रकार का है - औपशमिक और उपशमनिष्पन्न । औपशमिक भाव क्या है ? मोहनीय कर्म के उपनाम से औपनाशमिक भाव 1 उत्पन्न होता है। उपशमिकानिष्पन्न भाव क्या है ? उपशमनिष्पन्न के अनेक भेद हैं, यथा-उपशान्तक्रोध यावत् उपशान्तलोभ, उपशान्तप्रेम, उपशान्तराम, उपशान्तदर्शनमोहनीय, उपशान्तचारित्रमों
७
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧