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की अनुमति दें । "
“मम्रपाली जैसी तेरी इच्छा ।"
"भगवन् । एक प्रार्थना और भी है और वह मेरे जीवन की सब से बडी | अभिलाषा है ।"
" वह भी कह डालो ।”
“भगवन् ! मै चाहती हू कि अब घर, मकान तथा वाटिका सहित श्राप मुझे भी स्वीकार करे ।
" अच्छा ऐसा ही हो ।"
"बुद्ध सरण गच्छामि । सघ सरण गच्छामि । धम्मं सरण गच्छामि ।" आम्रपाली ने भिक्षुणी बन कर बौद्ध सघ मे प्रवेश किया। उसके महल से बौद्ध विहार का काम लिया जाने लगा ।
बुद्ध की प्रायु जब चालीस वर्ष की हुई तो उनका शरीर क्षीण हो गया । बौद्ध तथा जैन साधु के सघ का यह नियम होता है कि किन्ही दो साधुनों का साथ लगातार नही रह सकता। किंतु बुद्ध की शारीरिक स्थिति निर्बल मानकर बौद्ध सघ ने सर्वसम्मति से यह निश्चय किया कि आनद बुद्ध की सेवा के लिये सदा उनके साथ रहा करे। तब से आबद अतिम समय तक सदा ही बुद्ध के साथ बने रहे । उन्होने अत तक बडी लगन और प्रेम के साथ भगवान् की सेवा की। कुछ दिनो बाद आपको अपने प्रिय शिष्य सारिपुत्र और मौद्गलायन निर्वाण का समाचार मिला, इसी वर्ष आपके शरीर मे भी रोग हुआ ।
कुछ दिनो बाद भगवान् पावा पहुचे । वहा चुन्द नामक किसी कर्मकार ने आपको सघ सहित भोजन का निमत्रण दिया । भोजन करते समय जब भगवान् देखा कि चुन्द सुअर का मास परोसने वाला है तो उन्होने उससे कहा
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"हे चुन्द ! तुम मुझे छोड़ यह मास और किसी को न देना, क्योकि मनुष्यफ, देवलोक और ब्रह्मलोक को छोडकर और कोई इस मास को नही पचा सकता । जो मास मेरे खाने से बच रहे उसे यही पर गढा खोद कर गाड देना ।"
चुन्द ने भगवान् के बतलाए अनुसार ही सब कार्य किया । बुद्ध पहिले से ही अस्वस्थ थे, आयु भी इक्यासी की हो चुकी थी, अतएव सुअर का
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