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आर्यिका चेलना देवी का स्वगवास हो चुका था। अत अजातशत्रु के मन मे राजा चेटक के सबध का मान अब नही रहा था। उसके विपरीत अजातशत्रु बौद्ध तथा राजा चेटक जैन था। इसलिये अजातशत्रु अपनी साम्राज्यविस्तार की भावना मे वैशाली के गणतन्त्र को एक बाधा मानकर उसको नष्ट करने का विचार कर रहा था। प्रसेनजित का सवाद पाकर उसने उसको तुरन्त ही वैशाली पर चढ़ाई करने की अनुमति दे दी। वह समझता था कि इस युद्ध मे यदि लिच्छवी लोग न भी हारे तो युद्ध के कारण वह निर्बल तो अवश्य हो जावेंगे। प्रसेनजित् ने बन्धुल मल्ल की पत्नी की इच्छापूर्ति के लिये यद्यपि बन्धुल को वैशाली पर व्यक्तिगत अभियान करने की अनुमति दे दी, किन्तु उसने उसे कोशल तथा वज्जिसघ के युद्ध का रूप नही दिया। बन्धुल कुछ चुने हुए वीरो को साथ ले कर व्यापारियो के वेष मे वैशाली पहुँचा । रात्रि के समय मगल पुष्करिणी मे अपनी पत्नी को स्नान कराकर वह एक हल्के युद्ध के बाद ही वैशाली से अपने साथियो सहित कुशलपूर्वक निकल आया।
राजा प्रसेनजित बन्धुल की उन्नति से ईर्ष्या करने लगा था। उसके इस कार्य ने उसकी ईर्ष्या मे और भी घी का काम किया। उसने अवसर पाकर बन्धुल मल्ल को उसके सब पुत्रो सहित धोखे से मरवा दिया। इसके बाद उसने बन्धुल के भानजे दीघकारायण को अपना सेनापति बनाया।
किन्तु दीघकारायण भी प्रसेनजित् से मन ही मन जलता था। उसने प्रसेनजित् के उस विद्रोही पुत्र विडूडभ से गुप्त मैत्री कर ली, जिसको प्रसेनजित् ने शाक्य राजकुमारी के धोखे मे शाक्य दासी मे उत्पन्न किया था। विडूडभ अपनी उत्पत्ति का दोषी अपने पिता को मानता था। शाक्यो के गणतन्त्र की तो ईंट से ईंट बजा देने की वह प्रतिज्ञा कर चुका था। अजातशत्रु से वाजिरा का विवाह होने के तीन वर्ष वाद जब प्रसेनजित् शाक्यराष्ट्र की सीमा पर गया हुआ था, तो उसके सेनापति दीघकारायण ने उसके बेटे विडूडभ को कोशल का राजा बना दिया। प्रसेनजित अजातशत्रु से सहायता लेने राजगृह गया। किन्तु उसका राजगृह के बाहिर ही देहान्त हो गया। अजातशत्रु ने अपने श्वशुर प्रसेनजित की राज्योचित सम्मान के साथ अत्येष्टि की
यह बतला दिया गया है कि विड्डम की माता दासी तथा महानामन नामक