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श्रेणिक बिम्बसार राजा श्रेणिक के इस प्रश्न को सुनकर भगवान् अपनी दिव्य ध्वनि मे
बोले
"राजन् । सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् चारित्ररूप रत्नत्रय मार्ग की एकत्र पूर्णता ही मोक्ष का मार्ग है। तत्त्वो के अर्थ में श्रद्धान रखना सम्यक् दर्शन है । जीव, अजीव, पाश्रव, बध, सवर, निर्जरा और मोक्ष यह सात तत्त्व है । पुण्य और पाप का आश्रव तथा बध मे अतर्भाव किया जाता है, इसलिये उनकी गणना तत्वो मे नही की जाती । जीव का स्वरूप ज्ञानदर्शनमय है। उसमें इन दोनो की पराकाष्ठा होनी चाहिये । ज्ञान की पराकाष्ठा ही सम्यक् ज्ञान है । यह ससार छ. द्रव्यो से बना हुआ है। जिसमे गुण तथा पर्याय हों उसको द्रव्य कहते है। जीव गुरण-पर्यायधारी है। इसलिये द्रव्य का लक्षण रखने से द्रव्य है। पुद्गल के भी गुरण तथा पर्याय होते है। इसलिये उसे भी द्रव्य कहते है। धर्म, अधर्म तथा काल भी द्रव्य है। ये पॉचो अपने प्रदेशों की बहुलता के कारण अस्तिकाय कहलाते है । काल भी अपने गुरण-पर्यायो के कारण द्रव्य है। किन्तु उसके प्रदेश पृथक्-पृथक् होने के कारण वह अस्तिकाय नहीं है। आकाश के जितने भाग को पुद्गल का एक अविभागी परमाणु घेरता है, उसे प्रदेश कहते है। इस माप से मापने पर काल द्रव्य के अतिरिक्त अन्य पाची द्रव्यों को बहुप्रदेशीय कहा जाता है। इन जीव आदि सातो तत्त्वो के यथाथ स्वरूप पर श्रद्धान करना सम्यक् दर्शन है। उनको वैसे का वैसा ही जानना सम्यक् ज्ञान है। कर्मों के बन्धन के कारण प्रात्मा मे उत्पन्न होने वाले भावों का जिससे निरोध हो वह सम्यक् चारित्र है। इन तीनों की एकता से कर्मों का नाश होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है । इसलिये इसे रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग कहा जाता है।
"यह, जीव सदा से सत् है । यह अनादि, अनन्त, नित्य, स्वत सिंह अमूर्तिक तथा, स्वदेहपरिमाण वाला है। यह अपने वास्तविक रूप म पुद्गल सम्बन्धी शरीरो से रहित है, तो भी यह अनादि काल से कर्मबन्धन में पड़ा हुआ इस ससार में पुनर्जन्म के कष्ट को भोगता रहता है। यह जीव असंख्यात प्रदेशों वाला तथा अनन्त गुणों का धारी है। पर्याय की अपेक्षा जीव म उत्पादन