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श्रेणिक विम्बसार
• इस पर राजा श्रेणिक का हृदय भर आया और वह गद्गद् कठ से कहने लगे___ "मेरी स्थिति इस समय बडी विचित्र है । कर्तव्य कहता है कि मै आप की प्रार्थना को स्वीकार कर लू किन्तु मोह कहता है कि मै तुमको अपने नेत्रो की ओट न होने दूं।"
फिर उन्होने नन्दश्री की ओर देखकर कहा
"सुन्दरि ! तुमने मेरा निर्वासन अवस्था से साथ दिया है। सुख और दुःख में मेरा साथ जितना तुमने दिया है, उतना और किमी ने नहीं दिया। तुमको तो मेरा साथ जन्म भर निबाहना चाहिये।"
इस पर नन्दश्री ने उत्तर दिया
"राजन् ! इस संसार मे किसने किसका साथ दिया है। यह जीव ससार में अकेला ही आता है और इसको अकेले ही इस संसार को छोडना पडता है। इस क्षणिक जीवन में जो जीवो को एक दूसरे का साथ देते हुए देखा जाता है वह तो नदी-नाव सयोग है। आप ज्ञानी, ध्यानी तथा धैर्यवान् है। आपको इस प्रकार अपने धैर्य को नही छोडना चाहिये। अब आप अपने कर्तव्य का स्मरण करके हम चारो को जिन-दीक्षा लेने की अनुमति सहर्ष प्रदान करे।
इस पर राजा श्रेणिक ने कुछ देर मौन रहकर कहा__"अच्छा, यदि आप लोगो का ऐसा ही विचार है तो मैं भी आपके शभ कार्य में बाधा डालना नही चाहता।"
राजा श्रेणिक के यह वचन सुनकर तीनो राजकुमारो तथा महारानी नन्दश्री को बड़ी भारी प्रसन्नता हुई। इन लोगो के दीक्षा लेने का समाचार सुनकर जनता सहस्रो की संख्या में राजमहल के द्वार पर एकत्रित हो गई थी। जब यह चारों राजमहल के बाहिर आये तो जनता ने उनका सारे नगर में बड़ा भारी जुलूस निकाला । इसके पश्चात् जनता ने उस जुलूस को भगवान् के समवशरण पर जाकर समाप्त किया। जुलूस से छुट्टी पाकर अभयकुमार, कारिषेस तथा गजकुमार ने गौतम स्वामी के पास जाकर तथा महारानी नन्दश्री ने महासती चन्दनबाला के पास जाकर जिन-दीक्षा ग्रहण की।