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चेलना से विवाह
ऐसा कहकर वे दोनो बहिने बाहिर के वस्त्र पहनकर उठकर बाहिर की ओर चल दी। राजमहल से निकल कर वह अपने सामने के उसी महल मे आई, जिसमे युवराज-अभयकुमार सेठ रत्नप्रकाश का वेष बनाये हुए रहते थे। राजकुमारियाँ उस महल मे जाकर सीधे एक ओर बने हुए चैत्यालय मे गई। चैत्यालय बहुत छोटा, किन्तु अत्यत कलापूर्ण ढग से बना हुआथा। उसके बीचोबीच एक छोटी-सी वेदी के ऊपर एक बहुत छोटा सिहासन था, जिसकी लबाई लगभग नौ इच थी। सिहासन सोने का बना हुआ था। सिंहासन पर भगवान् पार्श्वनाथ की एक सोने की रत्नमयी प्रतिमा स्थापित की हुई थी। प्रतिमा पद्मासन थी और उसके दोनो घुटनो की लबाई लगभग आठ इञ्च थी। उसके सिर पर शेषनाग के सातो फन अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे। प्रतिमा के रत्नो से अत्यधिक प्रकाश निकल रहा था। प्रतिमा के ऊपर एक छोटा-सा बडा सुन्दर छत्र लगा हुआ था और छत्र के दोनो ओर चमर लगे हुए थे। प्रतिमा के दोनो ओर वेदी के दोनो थम्भो पर चमर लिये हुए इन्द्र की मूर्तियां लगी हुई थी जो नृत्य करने की मुद्रा में थी। चैत्यालय के दृश्य को देखकर दोनो राजकुमारियाँ आनन्द से विभोर हो गई। वह अपने दोनो हाथ जोडकर निम्नलिखित शब्दो मे भगवान् की स्तुति करने लगी--
"रणमो अरिहताण णमो सिद्धाण णमो आइरियाण।
णमो उवज्झायाण गमो लोए सव्वसाहूण ॥ चत्तारि मगल, अरिहत मगल, सिद्ध मगल, साहू मगल, केवलिपण्णत्तो धम्मो मगल। चत्तारि लोगुत्तमा, अरिहन्त लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहू लोमुतमा, केवलिपण्णतो धम्मो लोगुत्तमा । चत्तारि सरण पव्वज्जामि, अरिहत सरण पव्वज्जामि, सिद्ध सरण पव्वज्जामि, साहू सरण पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तो धम्मो सरण पव्वज्जामि।
श्री ऋषभ ॥१॥ अजित ॥२॥सभव ॥३॥ अभिनन्दन ॥४॥ सुमति ॥५॥ पद्मप्रभ ॥६॥ सुपार्श्व ॥७॥ चन्द्रप्रभ ॥६॥ पुष्पदन्त ॥६॥ शीतल ॥१०॥ श्रेयास ॥११॥ वासुपूज्यः ॥१२॥ विमल ॥१३॥ अनन्त ॥१४॥ धर्मः ॥१५॥
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