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जैन धर्म का परिग्रहण
होकर मुनिराज की प्रदक्षिणा करते देखा तो मारे क्रोध के उनके नेत्र लाल हो गए । वह सोचने लगे कि यह साधु नही, वरन् कोई धूर्त, वंचक मन्त्रकारी है । इस दुष्ट ने मेरे बलवान् कुत्तो को मन्त्र द्वारा कील दिया है । मैं अभी इसको sa हूँ ।
यह विचार करके राजा म्यान से तलवार खीचकर मुनिराज को मारने को चले । महाराज मुनि को मारने चले तो एक अत्यन्त भयानक कृष्ण सर्प फर ऊँचा किये हुए उनके मार्ग मे आ गया । राजा ने सर्प को देखते ही जान से मार डाला और फिर उसको अपने धनुष से उठा कर मुनिराज के गले में डाल दिया । मुनिराज गले मे सर्प पड जाने पर भी अपने ध्यान मे वैसे ही निश्चल खडे रहे ।
राजा श्रेणिक अब शिकार का कार्यक्रम स्थगित करके वापिस राजगृह ये । वहाँ उन्होने अपने गुरु को यह सारा समाचार सुना दिया । श्रेणिक द्वारा एक जैन मुनि का अपमान किये जाने से उन्हे बडी प्रसन्नता हुई ।
लगभग एक ग्रह रात्रि गई होगी। रानी चेलना अपना सामायिक समाप्त कर उठी हीं थी कि राजा श्रेणिक अत्यन्त प्रसन्न होते हुए उसके पास आकर बोले
"रानी । तूने जो मेरे गुरु का अपमान किया था, उसका बदला लेने का मुझे तेरे गुरु से आज अवसर मिला ।"
राजा के यह वचन सुनते ही रानी सन्नाटे में आ गई। उसने एकदम घबरा कर पूछा—
"आपने क्या किया महाराज ? मुझे शीघ्र बतलाइये ? मेरे हृदय की बेचैनी बढती जाती है ।"
"कुछ भी नही रानी ! तेरे गुरु मुनिराज जगल में खड़े ध्यान कर रहे थे कि मैने धनुष से उठाकर एक मरा हुआ सर्प उनके गले में डाल दिया ।"
राजा के यह वचन सुनते ही मुनि पर घोर उपसर्ग जान कर उसके नेत्रो से अविरल अश्रुधारा बहने लगी । क्रमश उसकी हिचकियां बंध गईं और
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