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भर्गवान महावीर स्वामी को केवल ज्ञान भगवान-जीव, अजीव, प्राश्रव, बंध, संवर, निर्जरा तथा मोक्ष थे। सात तत्त्व होते है । जीव तथा अजीव का स्वरूप तुम को बतला दिया गया। शरीर मे कर्म-वर्गणाओं के आने को आश्रव तथा कर्मों के जीव में बंध जाने को बध कहते है। किन्तु जब जीव कर्मों को नष्ट करने के लिये यत्नशील होता है तो वह प्रथम आत्मा मे कर्मों का प्रभा उसी प्रकार रोकता है, जिस प्रकार किसी तालाब के जल को निकालने के लिये प्रथम उसमे पानी लाने वाले मल अथवा मार्ग को बन्द किया जाता है। शरीर में नई कर्मवर्गसानों का आगमन रोकने को संवर तथा सचित कर्मों के नष्ट करने को निर्जरा कहते हैं। जब यह जीव समस्त कर्मों को नष्ट करके इस शरीर से छुटकारा पाकर प्रावागमन के चक्कर से छूट जाता है तो उसको मोक्ष की प्राप्ति होती है। इन सात तत्त्वो मे पुण्य तथा पाप को मिलाने से उनको नव पदार्थ कहा जाता है ।
इन्द्रभूति-उस श्लोक मे बतलाये हुए षट्काय के जीव कौन-कौन से हैं ?
भगवान-इन्द्रिया पाच होती है-स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु तथा कर्ण । कुछ जीव ऐसे होते है जिनके केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है जैसे पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक तथा वनस्पतिकायिक जीव । इन पाचो प्रकार के जीवो को स्थावर जीव भी कहा है । शेष जीवो को सकायिक जीव कहा जाता है; यही छः काय के जीव है ।
इन्द्रभूति-भगवन् ! स्थावर तथा त्रसजीव किन्हें कहते है ?
भगवान-जो जीव पैदा होते हो, बढ़ते हो, मरते हो, किन्तु चल-फिर न सकते हो उन्हे स्थावर जीव कहते है, तथा जो पैदा होते हों, बढते हो किन्तु चल फिर सकते हो उन्हे त्रसजीव कहते है। त्रसजीव चार प्रकार के होते है
द्वौन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय तथा पञ्चेन्द्रिय।
जिन जीवों के केवल स्पर्शन तथा रसना ये दो इन्द्रिया ही हो नाक, प्राख तथा कान न हो उन को द्वीन्द्रिय कहा जाता है जैसे चावलों में पाया जाने वाला लट नामक कीड़ा। जिन जीवो के केवल स्पर्शन, रसना तथा घ्राण ये तीन इन्द्रिया ही हो तथा प्राख एव कान न हो तो उन्हे तेइन्द्रिय कहा जाता है, जैसे