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श्रेणिक बिम्बसार
"नही सुन्दरी । मै चौके मे ही पटरे पर बैठकर भोजन करूँगा । बहुत कुछ ठीक हूँ ।"
"तो महाराज पधारें, भोजन का सब सामान ठीक है ।"
अब मे
‘“बहुत अच्छा” कहकर महाराज चारपाई से उठ खड़े हुए और तिलकवती के साथ चौके मे जाकर पटरे पर बैठ गए। तिलकवती ने उत्तम पकवानों से भरा हुआ थाल उनके सामने लाकर रख दिया और स्वय हाथ में पखा लेकर उनके सामने बैठ गई । राजा भोजन करते जाते थे और उसके रूपसुधारस का पान भी करते जाते थे । भोजन कर चुकने पर तिलकवती ने उनके हाथ धुला कर उनको कुल्ला कराया और खाने को इलायची दी । इसके पश्चात महाराज फिर चारपाई पर आकर लेट गए और तिलकवती स्वय भोजन करने लगी ।
कहने को तो राजा लेट गए, किन्तु उनको रह-रहकर तिलकवती का ध्यान ही आ रहा था । उसका गोल-गोल तथा सुन्दर मुख उनके मन में बस गया था । उसके चम्पक के समान गौर वर्ण मुख को बारबार देखते रहने की उनकी इच्छा बराबर बढती जाती थी । अन्त मे वह इस प्रकार विचार करने लगे
"यह अज्ञातकुलशीलवाली कन्या निश्चय से किसी उच्च वश मे उत्पन्न हुई है । इसका सारा शरीर इसके उच्चवगीय होने का प्रमाण दे रहा है । इसकी आयु भी विवाह के योग्य हो चुकी है । यद्यपि इसने अपनी प्रथम दृष्टि में ही मेरे हृदय पर अधिकार कर लिया है, किन्तु मै इस सूने घर में इस कन्या से प्रणय-सम्भाषण करके मर्यादा का अतिक्रमण नही करूँगा । किन्तु क्या सरदार से उसको मागना उचित होगा ? अनुचित तो नही जान पडता । उसको तो इसका विवाह कही करना ही है। अच्छा, सरदार आवे तो उससे उसके सम्बन्ध मे बातचीत की जावे ।"
राजा इस प्रकार अपने मन ही मन ऊहापोह कर रहे थे कि सरदार ने ड्योढी मे प्रवेश करके तिलकवती को आवाज दी । तिलकवती इस समय तक भोजन कर चुकी थी । वह उसका शब्द सुन कर बोली
" आइये पिताजी, कहिये क्या आज्ञा है ।"
"क्या तेरे अतिथि सो गए, बेटी ?"