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चित्रकार भरत मध्याह्न होने में अभी आधे पहर का विलम्ब है। क्वार मास होने के कारण धूप की गर्मी बहुत कुछ निकल गई थी, फिर भी वैशाली के सथागार का फर्श धूप से गर्म हो रहा है। उसके मत्स्य देश के उज्ज्वल श्वेत मरमर के सभामण्डप मे पड़ा हुआ सूर्य का प्रतिबिम्ब आखो मे ऐसी चकाचौध उत्पन्न कर रहा है कि उसके फर्श के काले पत्थर को देखने से ही चैन मिलता है। उसकी छत के काले पत्थर के एक सौ आठ खम्भे अभी तक सूर्य के ताप से बचे हुए है । सभा-भवन के चारो ओर भीतर की ओर रक्खी हुई हाथी दात की नौ सौ निन्यानवे चौकियो पर आठो कूलो के गण चुपचाप बैठे हुए है। सथागार के ठीक वीचो-बीच पत्थर की एक वेदी पर एक स्वर्ण-खचित सिहासन रखा हुआ है, जिस पर गणपति राजा चेटक बैठे हुए है । वेदी के ऊपर स्वर्ण दण्डो पर एक चदोवा तना हुआ है, जिस पर अनेक प्रकार का तारकशी का काम हो रहा है। वेदी के तीनो ओर कटिनिया थी, जिनके निकट अनेक कणिक सन्निपात तथा राजसभा की कार्यवाही लिख रहे थे। राजा चेटक सभा मे आकर बैठे ही थे कि दौवारिक ने आकर निवेदन किया
“लिच्छावि-कुलसूर्य गणपति महाराज चेटक की जय ।" "क्या है ? दौवारिक ?"
"महाराज | कोशल देश का एक चित्रकार महाराज के दर्शन करना चाहता है । वह अपना नाम भरत बतलाता है और कहता है कि उसका उद्देश्य . वैशाली के समस्त चित्रकारो से आशुचित्राङ्कन मे प्रतियोगिता करना है।"
___ "इतना आत्मविश्वास है चित्रकार भरत को अपने ऊपर कि उस को वैशाली के सभी चित्रकारो को पराजित करने का विश्वास है ? अच्छा उसको सम्मानपूर्वक अन्दर ले आओ।"
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