________________
महासती चन्दननाला
__"प्रभो ! मुझे अपने कौन-से पाप का दण्ड मिल रहा है ? आप जानते है कि मैने अपने इस चौदह वर्ष के जीवन मे कभी किसी का जी तक भी नही दुखाया। फिर मुझको किस पाप के कारण इस प्रकार भूखी-प्यासी जेल वास के दास्ण दुख इस भौरे मे भोगने पड़ रहे है ? कहा तो मैं चम्पा के महाराज दधिवाहन की प्राणप्यारी पुत्री और कहा यह जेल जीवन । कहा मै वैशाली के नौ लिच्छवि तथा नौ मल्ल राजाओ के अधीश्वर राजा चेटक की प्राणो से भी प्यारी धेवती तथा महारानी धारिणी देवी के गर्भ से उत्पन्न हुई पुत्री और कहा यह दासीपना ? विधि की कैसी विडम्बना है ? विधाता से मेरा लेशमात्र भी सुख नही देखा गया। मेरे बाल्यावस्था के दिन अच्छी तरह बीतने भी न पाए थे कि उस कौशाम्बी के राजा शतानीक ने अपने साढूपने के सम्बन्ध का लेशमात्र भी ध्यान न कर मेरे पिता पर चढाई करके चम्पा के सारे राज्य को नष्ट कर दिया । ओह ! उस समय की निर्मम हत्याओ और नगर की लूट को स्मरण करके अब भी मेरे हृदय मे असीम वेदना उत्पन्न होती है। उस समय यद्यपि मेरी माता धारिणी देवी मुझे लेकर भौरे मे छिप गई थी, किन्तु राजा शतानीक के रथवान ने हम दोनो को वहा से भी ढूंढ निकाला। वह हम दोनो को रथ म बिठा कर कौशाम्बी अपने घर ले आया । हाय ! आज मुझे अपनी उस माता की याद बहुत सता रही है, जिसने उस रथवान से अपने शील की रक्षा करने क्वे लिए मार्ग में ही अपने दातो से अपनी जीभ काट कर अपने प्राण दे दिये 'थे। मेरी माता ने अपने बलिदान से उस समय यह सिद्ध कर दिया था कि
आत्म-बलिदान कैसे भी दुष्ट व्यक्ति के स्वभाव को बदल सकता है। इसलिए उस दुष्ट रथवान ने माता के लिए रोती-कलपती देख कर मुझको पुत्री के
१८५