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श्रेणिक बिम्बसार
ही गये थे। हम लोगो ने हीरा, पन्ना, मरकत, मुक्ता, माणिक, पुखराज मरिण, नीलमणि, प्रवाल आदि रत्नो को लेकर अपने को व्यापारियो के एक समूह के रूप मे संगठित किया, जिसका नेता-सेठ मुझे बनाया गया। घर से आकर मार्ग मे हम लोग प्रत्येक बडे नगर मे ठहर कर रत्नो का न केवल व्यापार करते थे, वरन् प्रत्येक जैन सस्था का निरीक्षण करके उसकी बडी भवितपूर्वक आर्थिक सहायता भी किया करते थे। त्रिकाल सामायिक तथा पच परमेष्ठि स्तोत्र का पाठ करना तो हमने अपना नित्य नियम बना लिया था। इस प्रकार समस्त देश मे अपने जैनत्व को प्रसिद्ध करते हुए कुछ दिन बाद हम वैशाली जा पहुचे । यहा हम प्रथम एक उपवन मे ठहरे । इस उपवन मे एक जैन संस्था भी थी। यहा हमने जैन विधि से बडे ठाठ से उपासना की। इससे यहा के जैनियो मे बात की बात मे यह समाचार फैल गया कि कुछ विदेशी जैन धनकुबेर व्यापार के लिये वैशाली आये हुए है।
कुछ समय उपवन मे विश्राम कर हमने कुछ उत्तमोत्तम रत्नो को चुना। अब हमने गणपति राजा चेटक की सभा मे जाने की तैयारी की। राजसभा मे साथ जाने के लिये हमको कुछ स्थानीय जैन सेरू भी मिल गये । राजा चेटक की सभा को सघागार कहते है। उनकी राजसभा मगध की राजसभा से कम बडी नही है। उसमे नौ सहसू नौ सो निन्नानवे राजाओ के बैठने के पृथक्-पृथक् आसन है । गणपति राजा चेटक का आसन उन सबसे अधिक विशाल सथा सुन्दर है। राजा चेटक ने हम लोगो के आने का समाचार पाकर हम लोगो को अत्यन्त सम्मानपूर्वक अग्दर बुलवाया। हमने भी उनको अपने छाटे हुए रत्नो की एक माला भेट की । यहा के जैन सेठ हमारे साथ थे ही। उन्होने हमको अत्यन्त धार्मिक जैनी के रूप में राजा से मिलाया। राजा चेटक के साथ कुछ मधुर वार्तालाप करके हमने उनसे कहा__"राजाधिराज ! हम रत्नो के व्यापारी है । अनेक देशो मे भ्रमण करते हुए हम यहां आ पहुचे है। हमारी इच्छा आपके नगर मे कुछ दिन ठहरकर यहा के स्थान देखने की है। किन्तु हमारे पास निवास स्थान कोई नहीं है । हमको २१०