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चित्र पर आसक्ति अपराह्न का समय है । राजगृह के पाचो पर्वतो के ऊपर सूर्य की ढलती हुई किरणे एक बडा सुन्दर दृश्य उत्पन्न कर रही है। राज दरबार-आगत सबनो से ठसाठस भरा हुआ है । सम्राट् श्रेणिक बिम्बसार अपने राजसिंहासन पर बैठे ऐसे सुशोभित हो रहे है, जैसे तारागण से घिरा हुआ चन्द्रमा सुशोभित होता है। उनके चारो ओर महिलाएँ उन पर चमर ढुला रही है। वदीजन उनका यशोगान कर रहे है । उसी समय द्वारपाल ने आकर सम्राट् से निवेदन किया
"राजराजेश्वर सम्राट् श्रेणिक बिम्बसार की जय ।" सम्राट्-क्या है द्वारपाल ?
द्वारपाल-देव । भस्त नामक एक चित्रकार देव के दर्शन की अभिलाषा से द्वार पर खड़ा हुआ है। वह कहता है कि मुझे आज राजगृह के समस्त चित्रकारो को पराजित करके अपनी कला द्वारा सम्राट् की सेवा करनी है।
सम्राट-इतना आत्मविश्वास है उसे अपनी कला पर | अच्छा, उसे आदरसहित अन्दर ले आओ।
थोडी देर मे ही भरत ने राजसभा मे उपस्थित होकर अभिवादन किया और कहा
"राजराजेश्वर मगधराज सम्राट श्रेणिक बिम्बसार की जय।" सम्राट-कहो नवयुवक । कहां से आ रहे हो ? भरत-वैशाली से पा रहा हू देव। सम्राट-क्या कार्य करते हो ?
भरत-देव । मै चित्रकार हू । वैशाली मे मैने वहां के सभी चित्रकारो को राजसभा में बुलाकर अपनी कला के द्वारा पराजित किया था। देव! अल्पतम
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