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श्रेणिक बिम्बसार
भी 'कुछ 'उपदेश नही दिया । जनता उनका उपदेश न पाकर उनके दर्शन से ही अपने को कृतकृत्य मानने लगी । यद्यपि अब जनता के मन मे भगवान् का उपदेश श्रवण करने की आशा लेशमात्र भी बाकी नही थी, किन्तु उनको आहार देने की आशा अवश्य थी ।
कुछ समय के पश्चात् भगवान् चार हाथ पृथ्वी को आगे देखते हुए आहार के लिए नगर की ओर इस प्रकार यत्नपूर्वक चले कि उनके पैरो से कोई जीव जन्तु न मर जावे। नगर निवासी राजा और रक, धनी और निर्धन सभी उनसे विनयपूर्वक कहते
"भगवन् ! पधारिये पधारिये । आहार पानी शुद्ध है"
वापिस चले गए। भगवान् को आहार के लिए वापिस जाते तीन दिन हो गए, किन्तु उन्होने
किन्तु वह किसी की ओर दृष्टि न कर नगर मे वैसे ही घूम कर नगर में इस प्रकार आते तथा किसी के यहाँ आहार ग्रहण न किया । जनता समझ गई कि भगवान् ने अपने मन मे कोई कठिन अभिग्रह किया हुआ है कि उक्त अवस्था वाला प्राणी हम को अमुक प्रकार का आहार देगा तो लेंगे अन्यथा न लेंगे। जनता भगवान् का अभिग्रह जानने के लिए अत्यन्त चिन्तित थी, किन्तु इस गुत्थी को खोलने का कोई उपाय न था । इस प्रकार भगवान् को बिना आहार के विहार करते हुए लगभग पाँच मास बीत गए ।
सेठ घनावा जो तीन दिन बाद घर वापिस आए तो चन्दनबाला को घर मे न पाकर उनको बड़ी चिन्ता हुई। वह अपनी पत्नी के स्वभाव को जानते थे, अतएव किसी अनिष्ट की आशका से उनका मन अन्दर ही अन्दर शकाशील हो उठा । उन्होने घर में सब दास-दासियो से पूछा, किंतु सेठानी के भय के कारण किसी ने भी उनको असली बात न बतलाई । अन्त मे एक वृद्धा दासी ने डरते-डरते सेठ को वास्तविक बात बतला ही दी ।
सेठजी ने जो सुना तो वह घबराए हुए उस कोठरी में गए। चन्दनबाला को उस दशा में देखकर उनको बडा दुःख हा । वह उसको भूखी-प्यासी