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श्रेणिक विम्बसार
दौवारिक पीछे वापिस चला गया। उसके जाने के बाद कुछ देर मे ही एक युवक ने सथागार मे प्रवेश किया। उसकी आयु लगभग तीस वर्ष की थी, रंग गोरा तथा बाल घराले थे । उसने सुन्दर वस्त्र पहिने हुए थे । कमर मे बाईं ओर एक सुन्दर म्यानवाली तलवार लटकी हुई थी, दाहिनी ओर एक छोटी-सी पेटी लटकी हुई थी, जो रेशमी वस्त्र मे लिपटी हुई थी । उसने आते गणपति राजा चेटक को अभिवादन करके कहा-
“लिच्छावि कुलभानु राजराजेश्वर गणपति महाराज चेटक की जय ।" "आओ चित्रकार | बैठो ।”
चित्रकार के अपने निर्दिष्ट आसन पर बैठने पर गणपति न फिर प्रश्न किया
"आप कहाँ के निवासी हो चित्रकार ?"
"देव । मैं निवासी तो अयोध्या का हू, किन्तु बाल्यावस्था मे जब से मैने विद्याध्ययन के लिए जन्मभूमि को छोडा, तब से मुझे वहा फिर जाने का अवसर नही मिला ।"
" आप ने कला की शिक्षा कहा पाई है।
? ""
" मैने शिक्षा तो तक्षशिला मे पाई है । किन्तु चित्रकला के जम्बूद्वीप भर मुझे जहाँ जहा भी विशेषज्ञ सुनने को मिले, मैने उन सबके पास जाकर उनकी सेवा करने का फल लिया है ।"
"अच्छा, तो तुमने जम्बूद्वीप भर का भ्रमण भी किया है ?"
"देव हाँ, समस्त जम्बूद्वीप का नही तो उसके प्रधान - प्रधान नगरो की यात्रा अवश्य की है । मेरा दावा है कि चित्र बनाने में शीघ्र गति से याथार्थ्य उतारने मेरा मुकाबला कोई नही कर सकता । "
?"
" इतना आत्मविश्वास है तुमको अपनी विद्या पर "यह देव के चरणो की कृपा का ही फल है ।" इसके पश्चात् महाराज चेटक ने दौवारिक को बुला कर उससे कुछ कहा । इसके थोडे समय पश्चात् ही कई चित्रकारो ने सथागार मे प्रवेश किया । उन सभी के पास चित्र बनाने की सभी सामग्री थी । उनके आने पर गणपति -बोले
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