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श्रेणिक बिम्बसार
सभी वस्त्र उतार र दिगम्बर वेष धारण किया । वह पूर्णतया नग्न होकर कुण्डलपुर के बाहिर निकल कर नात्तखड अथवा ज्ञातृखड नामक वन मे पहुच कर एक शिला पर अशोक वृक्ष के नीचे बैठ गये । उन्होने मार्गशीर्ष शुक्ला दशमी को मुनिपद धारण किया ।
अब भगवान् महावीर कठोर तपश्चरण करते हुए घूमने लगे । वह भूख, प्यास आदि को सहन कर लम्बे-लम्बे उपवास किया करते थे । यद्यपि वह अपनी मुनि अवस्था में अनेक स्थानो मे भ्रमण किया करते थे, किंतु वह किसी को उपदेश नही देते थे । वर्षा काल मे वह किसी एक नगर के पास चार मास के लिये ठहर जाते थे, किन्तु वर्ष 'शेष आठ मास भर वह तप करते हुए भूमण ही करते रहते थे । वह अपने आगे की चार हाथ भूमि को देख कर सावधानी से चलते थे कि कही कोई जीव उनके पैर से दब न जावे । वह अनेक लम्बे-लम्बे उपवास किया करते थे । कई बार तो उन्होने कई-कई मास के लम्बे उपवास किये । जब उनको भोजन करना होता था तो वह नगर मे जाकर चुपचाप भ्रमण कर आते थे । वह किसी से मागते नही ये । यदि कोई उनसे कहता था कि " महाराज पधारिये । आहार पानी शुद्ध है" और वह उसके आचार-व्यवहार को अपने अनुकूल देखते थे तो उसके यहा जाकर खडे हो जाते थे, अन्यथा आगे बढ जाते थे । वह बैठकर भोजन नही करते थे और न किसी पात्र में ही भोजन गृहस्थ उनको आहार दान देने के लिये खाद्य वस्तुए लाता था तो वह खडे खडे ही अपने दोनों हाथो की अजलि आगे कर देते थे । गृहस्थ ग्रास बना बना कर उनके हाथ मे दे देता था और वह उसको खाते जाते थे । भोजन के बीच मे प्यास लगने पर भी वह पानी नही मागते थे । गृहस्थ स्वय ही खिलाते - खिलाते. बीच-बीच मे थोडा पानी भी उनकी अजलि मे डाल देते थे और वह उसको पी लेते थे । किसी से न मांगते हुए भी कभी-कभी वह अपने मनमें बड़े-बडे विचि नियम करके अभिग्रह करते थे कि आज मुझे भिक्षा मे अमुक वस्तु मिलेगी तो लुगा, अन्यथा न लूगा । गृहस्थ बेचारो को क्या पता कि उन्होने आज क्या अभिग्रह किया है । प्राय उनका अभिग्रह पूरा नही होता था
किसी के यहा
करते थे । जब
पर