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भगवान् महावीर की दीक्षा वैशाली के अप्टकुल मे ज्ञातृक भत्रियो का बडा मान था । वैसे लिच्छावियों को अपने कुल का इतना अधिक अभिमान था कि वह अपने रक्त मे अन्य रक्त का सम्मिश्रण नही होने देते थे, किन्तु ज्ञातृक क्षत्रियो को भी उनसे कम खानदानी नही माना जाता था। ज्ञातृको को ज्ञातृकवशीय के अतिरिक्त नाथवशीय भी कहा जाता था। उनकी राजधानी कुण्डपुर वैशाली से लगभग बारह तेरह मील दूर थी। कभी उसको कुण्डग्राम भी कहा जाता था, किन्तु इन दिनो उसे कुण्डपुर अथवा कुण्डलपुर ही कहा जाता था। जब तक वैशाली का गणतन्त्र नही बना था, वह एक छोटी बस्ती थी। किन्तु बाद मे वह बढते-बढते कुण्डपुर से मिल गई और कुण्डपुर को भी उसका ही एक उपनगर माना जाने लगा।
ज्ञातृक गण के गणपति कश्यपगोत्रीय राजा सिद्धार्थ थे। उनका वैशाली के कुलो के राजाओ में अच्छा मान था। लिच्छावी लोग तो उनका इतना अधिक सम्मान करते थे कि वैशाली के लिच्छावी गणपति राजा चेटक ने अपनी सबसे बड़ी पुत्रो त्रिशला देवी का उनके साथ विवाह किया था। राजा सिद्धार्थ को इस प्रकार उत्तम कुल, राजप्रतिष्ठा तथा उच्चवशीय अनुकूल पत्नी सभी प्रकार के सुख प्राप्त थे।
प्रात काल का सुन्दर समय था। आषाढ शुक्ल छट होने के कारण ऋतु अत्यन्त सुहावनी थी। रात्रि मे वर्षा हो जाने के कारण इस समय हल्की-हल्की ठड से वसत ऋतु के जैसा दृश्य उपस्थित था। त्रिशला देवी का मन आज विस्तर छोडते ही इतना अधिक प्रसन्न था कि जैसे कोई अक्षय निधि मिल गई हो । वह मन ही मन प्रसन्न थी, किन्तु उसको यह पता नहीं था कि यह प्रसन्नता किस बात की थी। उसने शय्या छोडकर प्रथम अपने इष्ट देव का ध्यान किया और फिर शौच-स्नान आदि से निवृत्त होकर उत्तम वस्त्रालकार धारण १७५