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श्रमण गौतम
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दोपहर ढलने को है । वसत ऋतु होने के कारण धूप मे अभी तेजी नहीं आई है । कपिलवस्तु के बाजार में अच्छी चहल-पहल है । लोग अपने-अपने घर से निकल-निकल कर बाजारो मे घूम रहे है कि एक ओर से आवाज आई
"मार्ग से हट जाओ । राजकुमार सिद्धार्थ की सवारी आ रही है।"
इस शब्द को सुनते ही भीड ऐसे छट गई, जैसे तालाब मे डला मारने पर काई फट जाती है । जनता ने राजकुमार की सवारी को आते हुए देखा। राजकुमार एक खुले रथ में बैठे हुए थे। उनके आगे-पीछे कुछ सवार चल रहे थे । गाडी मे आगे-पीछे अगरक्षक थे। उनके वरावर राज्य के एक अमात्य बैठे हुए थे।
राजकुमार अपनी गाड़ी में बैठे हुए बाजार से निकल कर उपवन के मार्ग पर पहुंचे तो उनके सामने एक वृद्ध पुरुष दिखलाई दिया । वृद्ध पुरुष की कमर पूर्णतया झुक गई थी। उसके गाल पिचक गये थे, और सारे बदन पर झुर्रिया पड गई थी। उसके बाल सन के समान सफेद हो गए थे। रह-रह कर उसको खासी का धसका आता जाता था। उसके नेत्र इतने कमजोर थे कि वह पृथ्वी को टोह-टोह कर बडी सावधानी से एक-एक पग बढाता जाता था। राजकुमार सिद्धार्थ ने जो उसको देखा तो वह उसको देखते के देखते ही रह गए। उन्होने मन में उसके सम्बन्ध में बहुत कुछ विचार किया किन्तु वह कुछ भी निश्चय न कर पाये । अत मे असमर्थ होकर उन्होने अमात्य से पूछा
"अमात्य यह कौन है ?" "यह वृद्ध है कुमार?" "यह वृद्ध किस प्रकार हो गया, अमात्य ।"
"एक बार सबको इसी प्रकार स्वाभाविक रूप से वृद्ध होना पड़ता है। यही जीवन की वास्तविकता है।"
अमात्य की यह बात सुनकर कुमार और भी सोच में पड गए । अब उनका टहलने में जी नही लग रहा था। उन्होने सेवको को पीछे लौटने की आज्ञा दी और बिना उपवन गए ही लौट कर घर आ गए।
कुमार गत भर उस वृद्ध के विषय में ही विचार करते रहे। वह सोच रहे थे