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कोशल - राजकुमारी से सम्बन्ध
अर्द्धरात्रि का समय है । राजगृह के सभी निवासी निद्रादेवी की गोद मे जा चुके है । किन्तु सम्राट् विम्वसार के शयनकक्ष से प्रकाश की रेवा अभी तक बाहर आ रही है । दो प्रहरी द्वार से लगभग पचास गज की दूरी पर बैठे हुए ऊघ रहे है । कक्ष के भीतर बहुत बढिया सजावट है। दीवारो पर अनेक प्रकार के देवी-देवताओ के हाम विलास के चित्र लगे हुए । एक ओर एक विस्तृत पलग विछा हुआ है । बीचो-बीच दो-तीन पीठ पडे हुए हैं, जिन पर बैठे हुए दो 'युवक आपस मे वार्तालाप कर रहे है । दोनो की आयु लगभग बीसपच्चीस वर्ष से अधिक नही है । उनमे से एक बोला
"मित्र, तुमने कल कोशल के कुल पुरोहित तथा नाई को वापिस श्रावस्ती क्यो नही जाने दिया ? क्या तुम उस समय यह भूल गए थे कि मुझे महाराज प्रसेनजित् से घृणा है
"मुझे सब कुछ स्मरण था सम्राट् ! मैने उनको जानबूझकर रोका है । मैं मगध तथा कोशल के बीच कई वर्ष से चलने वाले शीतयद्ध को प्रकट युद्ध का रूप देना नही चाहता था ।"
" तो उसको आप किस प्रकार रोक लेंगे
महामात्य
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" सम्राट् आप जानते हैं कि वर्षकार का कोई कार्य गहन राजनीति से शून्य नही होता । मै कोगल तथा मगध की शत्रुता को समाप्त करना चाहता हू "वह किस उद्देश्य से ?"
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"सुनिये महाराज ! आप देखते है कि मगध के चारो ओर हमारे शत्रु ही शत्रु है । उत्तर मे हमारा सबसे प्रबल प्रतिद्वंद्वी वैशाली गणतन्त्र है । यद्यपि गणतन्त्रो की साम्राज्य बढाने की कामना नही हुआ करती, किन्तु वह एकतत्र शासन प्रणाली के शत्रु होते है और सदा इस बात के लिये यत्नशील रहा करते हैं कि
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