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आणिक विम्बसार
को पच भद्रवर्गीय कहा गया । ये छहो महात्मा भिक्षा ग्रहण करते हुए कई दिनो बाद गया पहुँचे । उन दिनो वहा कोई उत्सव मनाया जा रहा था। गौतम को वहाँ के साधुओ के चरित्र पर श्रद्धा नही हुई । अब उन्होने वहाँ तपस्या के योग्य स्थान ढू ढा । गया से'योडी ही दूर उरुविल्व ग्राम मे निरजना नदी के किनारे एक समचित स्थान पाकर गौतम वहाँ घोर तपस्या करने लगे। इससे उनको अत्यधिक निर्बलता आ गई । यहा तक कि एक बार तो वह मूर्छित होकर गिर पडे । गौतम ने वहा दो वर्ष तक तप किया । किन्तु इतने वर्षों तक तपस्या करन पर भी उन्हे कोई लाभ दिखलाई न दिया । अतएव वह तपस्या को अनावश्यक समझने लगे। अब उन्होने ग्राम में प्रवश करके शरीर को पुष्ट करने का यत्न आरभ किया। उनके इस आचरण को देखकर पच महावर्गीय उनको समाधि-भीर तथा पोच समझन लगे । वह गौतम का साथ छोडकर वाराणसी चले गए।
अब गौतम वहा से चल कर निरजना नदी को पार कर एक अश्वत्थ के नीचे बैठकर प्रज्ञा-लाभ करने का विचार करने लगे।
इस वृक्ष को उनके तपश्चरण के कारण बाद में बोधिवृक्ष नाम दिया गया। उस समय वह तीन दिन से अनशन कर रहे थे और उनको बेहद भूख सता रही थी। अचानक उस समय वहा सुजाता नामक एक महिला खीर का भोजन लिये हुए आ गई। उसने सिद्धार्थ को पेट भर भोजन कराया। भोजन करके गौतम की आखे खुल गई और उनको यह बात जच गई कि शरीर को क्लेश देने से भी आत्मतत्त्व का बोध नहीं होता। यह विचार करके वह फिर ध्यान करने लगे। उस समय वह उच्चतम कोटि के ध्यान मे पहुच गए, जिससे 'मार' अथवा कामदेव ने उन पर सेना सहित आकमण किया। किन्तु गौतम सिद्धार्थ अत्यन्त धीर थे। अप्सराओ के नयन-बाण, उनके नूपुरो की आकर्षक ध्वनि तथा उनकी विविध काम-चेष्टाए उनको लेशमात्र भी विचलित न कर सकी । अन्त मे मार पराजित एवं लज्जित होकर भाग गया। गौतम ने वही 'बोध' प्राप्त किया। वे 'बुद्ध' हो गए।
बुद्ध का मुखमण्डल आत्मिक तेज से चमक उठा। उनको जीवन का १६०