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बौद्ध मत की शरण में असली तत्त्व मिल गया। उन्होने निश्चय किया कि वास्तविक तत्त्व न तो शरीर को अत्यधिक कष्ट देने में है और न उसके द्वारा अनेक प्रकार के भोग भोगने में है। व्यक्ति को किसी जीव को दुख न देते हुए अपने व्यक्तिगत आचरण को सुधारना चाहिये । इसी में उसका कल्याण है । उन्होंने इस समार को क्षणभगुर भी माना।
बोध प्राप्त करके उनको यह चिंता सवार हुई कि उस ज्ञान का उपदेश किसको दिया जावे । पचवर्गीय भिक्षुओ का ध्यान आने पर वह उनको उपदेश देने काशी चले। उन पाचो के नाम थे-कौडिन्य, वर, भद्रिय, महानाम और अश्वजित । उन्होने गौतम को आते देखकर उनको अर्घ्यपाद्य आदि न देने का निश्चय किया । किन्तु गौतम के समीप आने पर उनका यह सकल्प स्थिर न रहा और उन्होने उठकर उनका उचित सम्मान किया । गौतम ने कहा__"मै बोध प्राप्त कर चुका हू और तुम्हे उपदेश देने आया ह"
पहिले तो उन्होने विश्वास न किया, किन्तु बाद मे अपने से सबसे बड़े कौंडिन्य का मत मानकर उपदेश सुनना आरम्भ किया। महात्मा बुद्ध ने उनको पाच दिन तक उपदेश दिया। पहले दिन कौडिन्य उसे मान गया और फिर क्रम से एक-एक दिन में एक-एक भिक्षु मानता गया। इस प्रकार बुद्ध ने पाच शिष्य बनाकर काशी के समीप सारनाथ में प्रथम बार धर्मचक्र प्रवर्तन किया। पचवर्गीय भिक्षुओ के बाद असित देवल का भागिनेय नारद भगवान् का उपदेश प्राप्त कर मौनी हो गया। इसके पश्चात् काशी के समृद्धिशाली सेठ का पुत्र यश तथा उसके चार मित्र परिव्राजक बने । इस पूरे काम मे श्रावण मास निकल गया और बुद्ध को अपना प्रथम चातुर्मास्य काशी में ही व्यतीत करना पड़ा । इस प्रथम चातुर्मास्य में उनके कुल ६१ शिष्य बने । ऋषिपत्तनवन (सारनाथ)मे सघ. का सगठन किया गया, जिससे बौद्ध मत के बुद्ध, धर्म और सघ तीनो अग विकसित हुए । बौद्धमत मे इन्ही को रत्नत्रय कहते है।।
काशी का चातुर्मास्य समाप्त कर भगवान् ने उरुवेला जाते समय मार्ग में कापास्य वन मे तीस भद्रीय कुमारो को शिक्षा देकर धर्मोपदेशार्थ चारों दिशाओं मे भेज दिया। बिल्व काश्यप, नदी काश्यप तथा गय काश्यप नामक तीनों भाई
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