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वहाँ से सीधे राजद्वार की ओर चले ।
मध्याह्न होने मे अभी विलम्व था । सम्राट् श्रेणिक बिम्बसार अभी भोजन के लिये बैठ ही रहे थे कि दौवारिक ने आकर समाचार दिया
"सम्राट् की जय हो"
" क्या है दौवारिक ?"
" सम्राट् कपिलवस्तु के राजा शुद्धोदन का पुत्र शाक्यवशीय गौतम सिद्धार्थ भिक्षुक के वेष मे राजमहल की ओर चला श्रा रहा है । उसके पीछे उत्सुक जनता की बडी भारी भीड है । क्या मैं उन सबको राजमहल में आने दूँ !"
"अच्छा । गौतम सिद्धार्थ भिक्षाटन करता हुआ राजगृह मे आ गया ? तब तो आज उनको भिक्षा देकर ही मोजन करेगे । दौवारिक । कुमार को राजमहल में आने दे ! हा, उसके पीछे आने वाला जनता को द्वार पर ही रोक देना !"
दौवारिक के वापिस जाते-जाते गौतम सिद्धार्थ राजभवन के द्वार पर आ पहुँचे थे । दौवारिक ने उनको आगे जाने का मार्ग बतलाकर जनता को द्वार पर ही रोक दिया । सिद्धार्थ आगे बढते जाते थे, किन्तु उनकी दृष्टि नीचे थी । राजभवन के दास-दासियो, वहा की सजावट तथा वहा की अन्य वस्तुओं की ओर उनका लेशमात्र भी ध्यान न था । क्रमश वह सम्राट् बिम्बसार के भोजन कक्ष मे पहुँचे । यहा आने पर सम्राट् ने उनकी निम्नलिखित शब्दो मे अभ्यर्थना की
" शाक्यपुत्र गौतम सिद्धार्थ का अभिनन्दन । श्रमणवर ! आहार- पानी शुद्ध है । आप भोजन स्वीकार करे ।"
" जैसी आपकी इच्छा । किन्तु में एक साधु के समान भोजन करूंगा, एक राजकुमार के रूप मे नही ।"
" जैसी आपकी इच्छा ।"
यह कह कर सम्राट् ने विविध सोने-चादी के पात्रो मे भोजन परसवा कर उनको अपने साथ आसन पर बिठला कर भोजन कराया । सिद्धार्थ के भोजन आरम्भ करने पर सम्राट् भी भोजन करने लगे । सिद्धार्थ ने अत्यन्त सयमपूर्वक भोजन किया । यद्यपि उनके थाल मे सम्राट ने छत्तीस प्रकार का १५२