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नन्दिग्राम में
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राजकुमार बिम्बसार जिस समय गिरिव्रज से चले तो लगभग डेढ पहर दिन चढा था । वह भोजन भी नही कर पाए थे कि उनको देशनिर्वासन की आज्ञा सुना दी गई । अस्तु वह बिना भोजन किये ही नगर से निकल चले । जाते समय उन्होने अपने पाच सौ सेवको को भी यह कह कर बिदा कर दिया कि उन्हें अच्छे दिन वापिस आने पर आवश्यकता के समय फिर बुला लिया जावेगा ।
चले । इस समय वह अपने राजसी वेष मे उनके पास वाहन या अन्य सामग्री कुछ भी एक सेठ जी भी मिल गए, जिनका नाम सेठ से आकर पश्चिम को जाने वाले मार्ग पर राजकुमार बोले
बिम्बसार गिरिव्रज से निकल कर प्रथम पश्चिम की ओर को पैदल ही तो थे, किन्तु उस वेष के उपयुक्त नही थी । मार्ग मे जाते हुए उन्हे इन्द्रदत्त था । वह भी कही और चले जा रहें थे । उनको देखकर
" मामा, प्रणाम अब तो हम मार्ग में एक से दो हो गए ।"
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सेठ जी ने मन मे तो राजकुमार के 'मामा' कहने पर कुछ बुरा सा माना, किन्तु प्रकट में यह उत्तर दिया-
"हा, मार्ग में एक की अपेक्षा दो सदा ही अच्छे रहते हैं । "
किन्तु सेठ जी कुछ कम बोलने वाले थे । बिम्बसार को पैदल चलने का अभ्यास नही था । अतएव उसको मार्ग का श्रम अखर रहा था । उसने सेठ जी से कहा
“मामा | ऐसे किस प्रकार मार्ग तय होगा । जिह्वारथ पर चढकर चले ।”
सेठ जी उसके इस शब्द को सुनकर भी चुप ही रहे। वह मन मे सोचने लगे कि कैसा विचित्र युवक है । जिह्वा तो मुख मे है, भला उसका रथ किस
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