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पुत्र-लाभ
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आरम्भ किया । जब तक उस थाली की खीर को उसने पूर्णतया समाप्त न कर लिया, उसने दूसरी थाली की ओर को मुख भी नहीं किया। प्रथम थाली को समाप्त कर वह दूसरी थाली की ओर बढा, दूसरी थाली समाप्त होने पर एक तीसरी थाली मैने उसके सामने फेक दी। यह देख कर उसने कृतज्ञतास्वरूप मुझे देखकर अपनी पूछ हिला दी। फिर मैने दो-तीन थालिया उसकी ओर और भी फेकी । यहा तक कि वह और मै दोनो ही पेट भर कर रसोई घर से साथ-साथ निकले । वह पूछ हिलाता हुआ मेरे पीछे-पीछे आ रहा था।
नन्दिश्री-दूसरी परीक्षा क्या थी ?
बिम्बसार--वह बुद्धि की सबसे कठिन परीक्षा थी। पिता जी ने हम सब भाइयो को एक-एक कोरा घडा देकर उसे ओस से भर कर लाने को कहा।
नन्दिश्री-अरे, कही ओस से भी घडे भरा करते है ?
बिम्बसार-यही तो तमाशा था। सभी राजकुमार अपने-अपने घडो को लेकर जगल में पहुंचे और ओस की एक-एक बूद को घास से उठा कर घड़े मे डालते, किन्तु वह बूद घडे मे जाते ही सूख जाती।
नन्दिश्री-वह तो सूख ही जाती । इससे तो वह घडे को वैसे ही लाकर वापिस कर देते तो अच्छा था । आपने उस अवसर पर क्या किया ?
बिम्बसार-मैने उस घडे को अपने एक सेवक से उठवा कर प्रथम तो उसको जल मे कुछ देर डुबोये रखा, जिससे कोरेपन के कारण जितना जल उसे अपने अन्दर सोखना हो उतना सोख ले। घडे के साथ जगल मे मै एक सूती चादर भी ले गया था। उस सूती चादर को घास पर बिछाने से वह ऐसी भीग जाती थी जैसे उसे जल मे भिगोया गया हो। फिर मै उस चादर को. अपने घडे मे निचुडवा लता था। चालीस-पचास बार इस प्रकार करने पर मैने उस घडे को ओस से भर लिया।
नन्दिश्री--यह तो वास्तव मे ही बुद्धि का चमत्कार था। आपकी तीसरी परीक्षा क्या थी?
बिम्बसार--राजमहल में आग लगा कर यह देखना था कि कौन सा राजकुमार छत्र, चमर, सिहासन आदि संज्य-चिन्हो को बिना बतलाए हुए