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नन्दिग्राम पर कोप
एक बकरा भेजा है और आज्ञा दी है कि उसको खूब खिलाया-पिलाया जावे। यदि सात दिन बाद वह बकरा तोल मे तनिक भी घट या बढ गया तो सारे गाव को दण्ड दिया जावेगा।
नन्दिश्री-तो तुमने गाववालो की क्या सहायता की बेटा ।
अभय-माता, मै उनको बतला आया हूँ कि वह बकरे को खूब खिलापिला कर केवल दो घडी के लिये प्रतिदिन एक भेडिये के सामने बाध दिया करे।
नन्दिश्री--वाह-वाह पुत्र | तुमको यह युवित अच्छी सूझी।
अभय-माता | यह सब आपकी ही तो दी हुई है। हा, उन्होने एक प्रार्थना मुझसे यह की है कि जब राजा का हमको दण्ड देन का यह उपाय व्यर्थ जावेगा तो सभव है वह कोई और युक्ति दण्ड देने की निकाले । अतएव जब तक राजकोप शान्त न हो जावे मै इसी गाव मे रहूँ।
नन्दिश्री-तो तुमने उसका क्या उत्तर दिया पुत्र ?
अभय-माता, मैने उनको वचन दिया है कि जब तक उन पर राजकोप शान्त नही होगा, मैं देसी गाव में रहूँगा।
नन्दिश्री-जब तो बेटा, हम सबको भी यही ठहरना पडेगा और न जाने इसमे कितना समय लग जावे ।
अभय-किन्तु माता अव तो मै उनको वचन दे चुका। मेरे दिये हुए वचन की तो रक्षा होनी ही चाहिये ।
नन्दिश्री-तेरे दिये हुए वचन की बेटा, मै निश्चय से रक्षा करूँगी। तू चिन्ता न कर । जब तक इस गाव का विपत्ति से उद्धार न हो जावेगा मै भी तेरे साथ यही रहूँगी। ___ नन्दिनाथ को जब पता चला कि अभयकुमार वास्तव मे सम्राट् का पुत्र है तो उसकी उन पर और भी भक्ति हो गई। उसने गाव की सारी विशाल धर्मशाला को खाली करवा कर उनसे उसमे आ जाने की प्रार्थना की। सेठ इन्द्र दत्त ने अभयकुमार की इच्छा के अनुसार अपने शिविर को मैदान से हटाकर ग्राम की धर्मशाला में डेरा लगाया। अब वे लोग धर्मशाला मे कुछ अधिक मुविधा-पूर्वक रहने लगे।
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