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पुत्र लाभ
का दुख है, किन्तु उसको पुन प्राप्त करने का उपाय करना चाहिये। उसके लिये चिन्ता करके शरीर को क्यो क्लेश पहुँचाया जावे ।
बिम्बसार-तुम सत्य कहती हो प्राणप्रिये । मेरे हृदय मे चिन्ता नही, वरन् वेदना है, जिसको मैं किसी समय भी अपने हृदय से नही भुला सकता।
नन्दिश्री-तो उसको मुझे भी बतलाइये प्राणनाथ । यह नियम है कि हृदय के दुख को प्रकाशित कर देने से उसका वेग कुछ हल्का हो जाता है। फिर मै तो आपकी अर्धाङ्गिनी हूँ। आपके सुख-दुख को आधा बाट लेना मेरा अधिकार एव धर्म है।
बिम्बसार-मै तुमसे छिपाना नहीं चाहता, केवल यही सोचता हूँ कि मै तो दुखी हूँ ही, फिर उसको सुनाकर तुमको भी क्यो दुखी करूं।
नन्दिश्री-तो इसका यह अभिप्राय हुआ स्वामी, कि आप मुझे मेरे अधिकार से बचित करते है।
बिम्बसार--नही प्रिये, ऐसा तुम्हे नही समझना चाहिये।
नन्दिश्री-ऐसा तभी तो नहीं समझूगी जब आप अपना हृदय खोल कर मेरे सामने रखेगे।
बिम्बसार-अच्छा, तुम्हे आग्रह है तो लो सुनो। नन्दिनी-हा, भगवन् सुनाइये। मै उसे सुनने को अत्यधिक उत्सुक हूँ।
बिम्बसार-बात यह है प्रिये । कि मुझे मेरे पिता ने पहिले से ही युवराज बना दिया था। इससे न केवल मुझे राज्य मिलने की. पूर्ण आशा हो गई थी, वरन् मेरे सभी भाइयो और नगरनिवासियो तक की उसमें पूर्ण सहमति थी। किन्तु एक भील-कन्या तिलकवती से विवाह करते समय पिता यह वचन दे बैठे कि राज्य उसी के औरस पुत्र को दिया जावेगा। यदि पिता मुझ से यह स्पष्ट कह देते तब तो मै तिलकवती के पुत्र के पक्ष मे अपने राज्याधिकार का उसी प्रकार त्याग कर देता, जिस प्रकार राजा शतनु के पुत्र देवन्नत (भीष्म पितामह) ने किया था, किन्तु उन्होने यह न कह कर मुझे झूठा आरोप लगा कर घर से निकाल दिया।
नन्दिश्री-झूठा आरोप क्यो लगा गया प्राणनाथ !