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कोई पात्र अपने पास नही रखते । इसलिये उनको बर्तन आदि किसी भी का के लिये द्रव्य की आवश्यकता नही पडती । श्वेताम्बर जैन साधु, स्थानिकवासी जैन 'साधु तथा तेरापथी जैन साधु भिक्षा अपने स्थान पर लाकर काठ के पात्रो भोजन करते है, जिन्हे वह गृहस्थो से माग लाते है । अतएव कामिनी के समान कंचन का स्पर्श वह भी किसी प्रकार नही करते ।
इस प्रकार कचन तथा कौमिनी दोनो का ही सम्पर्क जैन साधुओ मे किसी प्रकार भी सिद्ध नही किया जा सकता । जैन साध्वियों का भी पुरुषो अथवा धन से किसी प्रकार का सपर्क सिद्ध नही किया जा सकता । भगवान् महावीर स्वामी के समय से लेकर आज तक जैन साधुप्रो ने इस विषय मे सदा ही अपने चरित्र की रक्षा की है । किन्तु साधुओ के इतने उच्च श्राचरण होते हुए भी जैन धर्म का पतन हुआ है । जो कि निम्न लिखित तथ्यों से प्रकट है ।
( १ ) जैन साधुओ की सख्या श्राज प्राचीन काल की अपेक्षा नगण्य है. (२) जैन धर्म का प्रचार रूप समाप्त हो चुका है और नये-नये व्यक्ति जैन धर्म को ग्रहरण नही करते ।
(३) जैनी लोग भगवान् महावीर के उपदेशो से क्रमश दूर हटते जा रहे है और
(४) उनके विभिन्न सम्प्रदायो मे इतना अधिक मनोमालिन्य है कि वह एक दूसरे की उपस्थिति को भी सहन नही कर सकते ।
यहा इन चारो के विषय में एक-एक करके विचार किया जाता हैजैन धर्म संख्या का ह्रास - भगवान् महावीर के समय जैन मुनियो की सख्या लाखो मे थी, जबकि आज दिगम्बर जैन मुनियो की सख्या कठिनता से समस्त भारत मे दस-बारह तथा अन्य तीनो सम्प्रदायो के मुनियो की सम्मिलित सख्या लगभग दो सहस्र से अधिक नही है । इससे प्रकट है कि जैन धर्म आजकल पतन की ओर जा रहा है ।
जैन धर्म के प्रचारक रूप की समाप्ति —जैन धर्म आरभ से ही एक प्रचारक धर्म था । उसमें सदा से नये-नये व्यक्तियो को प्रविष्ट करके उसके क्षेत्र को व्यापक बनाया जाता रहा है। रूप को छोड कर प्रगतिहीन बन चुका है,
आज वह अपने इस प्रचारक जिससे जैनियो की सख्या प्रतिदिन