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दुगम वन में महाराज उस अश्व पर बैठकर जगल के मार्ग में अपनी अगरक्षक सेना के साथ चले तो उनका मन बहुत प्रसन्न था। बहुत देर तक वह अगरक्षक सेना के साथ चलते रहे । क्रमश गहन वन आ गया। इसी समय उनको एक मृग दिखलाई दिया। राजा ने जो अश्व को मृग के पीछे दौडाया तो वह चक्कर काट कर वहा से भाग गया। राजा ने भी अपने अश्व को उसके पीछे इस प्रकार डाला कि मृग उनकी दृष्टि से ओझल न हो सका। अगरक्षको ने राजा का साथ करने का बहुत यत्न किया, किन्तु वह उस अश्व को किसी प्रकार भी न पा सके । अस्तु, वह राजा को न पाकर उनको ळू ढते हुए वन मे भटकने लगे।
राजा ने जो अश्व को मृग के पीछ डाला तो उसने दो तीन कोस तक मृग का पीछा करने के बाद उनको मृग के पास पहुचा दिया। अब तो राजा ने एक ही बाण से मृग को मार डाला। किन्तु मृग को मारकर ज्योही उन्होने अश्व को रोकने के लिये उसकी लगाम को खैची तो अश्व ने लगाम को मानने से इकार कर दिया। राजा ने अपनी पूरी शक्ति लगाकर लगाम को खेचना आरम्भ किया, किन्तु अश्व ने उनके शासन को मानने से साफ इकार कर दिया। लगाम के वेग से अश्व का मुख लहू-लुहान हो गया, किन्तु उस की सरपट चाल में लेशमात्र भी अन्तर न आया । अश्व अपनी एक उसी चाल से सरपट भागते हुए राजा को कई कोस तक दूर ले जाकर ऐसे जगल मे ले गया जहा किसी प्रकार का भी मार्ग नही था और सारी भूमि कटकाकीर्ण तथा ऊबड़-खाबड थी। अश्व वहा से आगे बढ़ने का मार्ग न पाकर वही पर इस प्रकार चक्कर काटने लगा कि वह प्रथम दस-बीस कदम आगे बढ जाता था और कभी भारी