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न होकर उतराधिकारी था । इस विशाल साम्राज्य के निर्माण कार्य को सम्राट् श्रेणिक विग्बतार ने प्रारंभ किया था। बाद मे प्रजातशत्रु, उदायी तथा महापद्मनन्द ने उस साम्राज्य को इतना अधिक वढाया कि उसको नन्दवश से उत्तमधिकार में प्राप्त करके चन्द्रगुप्त मोर्य उराको मध्य एशिया तक बढाने मे सफल हो गया । यह निश्चय है कि यदि चन्द्रगुप्त मौर्य को इस विशाल साम्राज्य का उत्तराधिकार नै मिलता तो वह इतने बड़े साम्राज्य का निर्माण कभी न कर पाता ।
जैन तथा बौद्धमत के पतन के कारण - इसमे सदेह नही कि शिशुनाग वश से लेकर मौर्य वंश के समय तक जैन तथा बौद्ध धर्म उन्नति के चरम शिखर पर थे । उसके बाद उनमे न केवल प्रनेक सम्प्रदाय बन गए, वरन् उनका भोतिक पतन भी प्रारंभ हो गया । किन्तु दोनो के पतन के कारण भिन्न ही थे । बौद्ध धर्म की अवनति का कारण उसके भिक्षुको के चरित्र का पतन था । बाद के बौद्ध भिक्षुत्रो ने न केवल मन्त्र तन्त्रो को अपना लिया, वरन् वह अपने ब्रह्मचर्य व्रत को भी स्थिर न रख सके । बौद्ध साधु मांसभक्षी तो प्रारंभ से ही थे । प्रत उनके खानपान में भी विलासिता आ गई । बौद्ध भिक्षुओ का नैतिक पतन बौद्ध धर्म के ह्रास का प्रान्तरिक कारण था । स्वामी शकराचार्य के आक्रमण से उनको बाहिर मे ऐसी चोट लगी कि वह उसको न सभाल सके । बाद मे मुसलमानो के आक्रमण ने तो उनके अस्तित्व तक को भारतवर्ष से मिटा दिया ।
किन्तु जैनियो की संख्या भारतवर्ष मे कभी भी तेरह चौदह लाख से कम नही हुई । यह लोग सदा से ही धनिक रहे, भारतवर्ष के व्यापार मे सदा से ही उनका प्रधान भाग रहा। किन्तु जैन धर्म श्राज उस उन्नत अवस्था में नही है । उसके पतन का कारण मुख्य रूप से उसका विभिन्न सम्प्रदायो मे बट जाना तथा उसके प्राचरणो की कठोरता है । आचरणो की कठोरता के काररण ही जैन साधु के चरित्र मे कभी निर्बलता नही आई । गौतम बुद्ध ने जहा अपने सघ में महिलाओ को हिचकते - हिचकते लिया, वहाँ जैन संघ मे प्रथम तीर्थकर भगवान् ऋषभ देव के समय से जैन साध्वियो का प्रधान स्थान रहा है ।
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