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राहुल साकृत्यायन जैसे कुछ विद्वानो का तो सामूहिक ब्रह्मचर्य मे विश्वास ही नही है। उनका कहना है कि साधु या साध्विया पृथक्-पृयक् अथवा सम्मिलित रूप से ब्रह्मचर्य का पालन कर ही नहीं सकते। राहुल जी का इरा सम्बन्ध मे इतना पक्षपातपूर्ण मत है कि वह किसी ब्रह्मचारी समाज को देखकर उसकी चारित्रिक दुर्वलतायो को (यदि उनमे वह पा सके)बतलाने को तैयार नहीं हैं। ___राहुल जी का मत चाहे जो कुछ क्यो न हो, तथ्य यह है कि जैन साधुओ के नियम प्रारभ से ही इस प्रकार के रखे गए है कि उनमे कवन तथा कामिनी के ससर्ग को किसी प्रकार भी सिद्ध नहीं किया जा सकता। प्रत्येक जैन साधु के लिये यह अनिवार्य है कि वह विपरीत लिंग वाले प्रत्येक प्राणी के स्पर्श तक से बचे । एक जैन साधु स्त्री तो क्या एक दिन की कन्या, गौ, भैस, बकरी, मुर्गी, मोरनी अथवा किसी भी मादा पशु-पक्षी तक का स्पर्श नहीं कर सकता। उधर जैन साध्वी किसी भी पुरुष जाति के व्यक्ति का स्पर्श नही कर सकती, फिर भले ही वह एक दिन का लउका, बैल, घोडा, बकरा, मुर्गा, मोर आदि कोई भी पशु-पक्षी क्यो न हो।
जैन प्राचार्यों को महिलाम्रो को दीक्षा देने का अधिकार है। किन्तु उन की महिला शिष्या अपने गुरु का चरण स्पर्श तो क्या, किसी प्रकार का भी स्पर्श नहीं कर सकती । जैन साधु तथा साध्विया जब एक स्थान से दूसरे स्थान को जाते है तो उनके बीच मे एक दूसरे से पर्याप्त अन्तर होना चाहिये । जहा वह ठहरे वहा एक ही नगर में रहते हुए भी उन दोनो के निवास स्थान एक दूसरे से पर्याप्त दूर होने चाहिये । यद्यपि गुरुयो को साध्वियो को पढाने का अधिकार है किन्तु वह अकेली साध्वी को नहीं पढ़ा सकते। फिर भी यह आवश्यक है कि साध्विया पहर भर दिन रहते अपने निवास स्थान में पहुच जावे ओर पहर भर दिन निकले पीछे वहा से निकले।
इस प्रकार के कठोर चारित्रिक नियन्त्रणो के कारण जैन साधुओ का बौद्ध साधुओ के समान कभी भी चारित्रिक पतन नही हुमा । जैन साधु स्त्री के स्पर्श के अतिरिक्त धन का रपर्श भी नहीं करते । वह पैदल ही चलते है। अतएव उनको मार्ग-व्यय की कभी अवश्यकता नही पडती । दिगम्बर साधु खड़े होकर हाथ मे ही भोजन करते है और एक काठ के कमडलु के अतिरिक्त और