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धर्मास्किाय. अवर्ण, अगन्ध, अरस, अस्पर्श, अरुपी, अमीब, आस्वत, अवस्थित, लोकद्रव्य सम्पूर्ण लोक व्यापक है । जिसका संक्षेपसे पांच भेद है । यथा-(१) द्रव्यसे एक द्रव्य (२) क्षेत्रसे लोक प्रमाण (३) कालसे अनादि अनन्त (४) भवसे वर्णादि रहित (५) गुणसे चलण गुण पानीमें मछलीका दृष्टान्त । एवं अधर्मास्तिकाय परंतु गुणसे स्थिर गुण वृक्षपन्थीका दृष्टान्त । एवं आकाशा. स्तिकाय परंतु क्षेत्रसे लोकालोक प्रमाण, गुणसे आकासमें विकास गुण पानीमें पताका दृष्टान्त एवं जीवास्तिकाय परंतु द्रव्यसे अनन्ता दम, क्षेत्रसे लोक प्रमाण, गुणसे उपयोग गुण चंद्रकी कलाका दृष्टान्त एवं पुट्टलास्तिकाय परंतु वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श सहित, द्रव्यसे अनन्ता द्रव्य भावसे वर्णादि सहित गुणसे गलण मिलन बादलका दृष्टान्त ।
(प्र०) धर्माम्ति कायके एक प्रदेशको धर्मास्ति काय कहना ? ' (उ०) नहीं कहना
(प्र०) क्या कारन ?
(उ०) जैसे खडित चक्रको सम्पूर्ण चक्र नहीं कह सकते ऐसे ही छत्र चामर, दंड वस्त्रादि ख ण्डतको सम्पूर्ण नहीं कहते वैसे ही धर्मास्तिकायके दोय प्रदेश तीन च्यार यावत असंख्याते प्रदेश और एक प्रदेश न्यूनको धर्मास्तिकाय नहीं कहते __(प्र०) हे भगवान् तो किपको धर्मास्तिकाय कहना -- (उ०) धर्मास्तिकाय असंख्यात प्रदेश वह मी सर्व लोक मापक हो उसीको धर्मास्ति काय कहना एवं अधर्मास्तिकाय और