________________
जीवको मारना नहीं, औरों के पास मरवाना भी नहीं और तीन योग मनसे वचनसे और कायसे । इस व्रतमें “जाणी
अगर यह प्रश्न किया जाय कि श्रावक गृहकार्य के लिये तथा संग्रामादिमें त्रस जीव मारते हैं । उत्तर-हां, गृहकार्यादिमें त्रस जीव मरत है परन्तु श्रावक बस जीव मारनेका कामी नहीं है जैसे कि साधुको नदी उतरतां बस स्थावरोंकी हिंसा होती है परन्तु मारनेका कामी न होने वीस विसवाही दया मानी गई है । भगवती सूत्र ७ श० उ० १ में कहा है कि त्रस जीवांको मारनका त्याग करने पर पृथ्वी खोदतां वय जीव मर जाव तो श्रावकको व्रतमें अतिचार नहीं लगता है ।
अगर श्रावकों के स्थावर जीवोंकी वाल्कुल दया नहीं, गिनी जावे तो फिर श्रावक छट्ठादिग् परिमाण व्रत करता है उन्होंका क्या फल हुवा ? सातमा व्रतमें द्रव्यादिका संक्षेप करता है उसका क्या फल हवा ? चौदह नियम धारते है। उन्हों का क्या लाभ हुवा ! कारण कि स्थावर जीवोंकी दया तो उन्होंके गीना ही नहीं जाती है। और त्रस जीवोंके तो पहेले ही त्याग हो चुका था फिर छटा, यातवां, आठवां व्रत लेनेका क्या लाभ हुवा ?
(प्रश्न) साधु और श्रावकक क्या सवा विसवा दयाका ही फरक है !
(उत्तर) और क्या है ? देखिये श्रावकों के शास्त्रकारोंने कैसा महत्व बतलाया है " एसअठे एसपमछे संसाअगढ़े x x x अप्पाणं भावेमाण विहरड'' गृहवासमें रहते हुवे श्रावकका यह लक्ष है कि वीतरागका धर्म है वह अर्थ और परमार्थ है ! शेष गृह कार्य अनय है । सदैव आत्माको भावता हुवा विचरता है । सोचना चाहिये कि साधु
और श्रावको क्या फरक है। द्रव्यमे श्रावक गृहवासमें प्रवृत्ति करता है इसके लिये ही सवा वीसवा कम रखी गई है । अगर कोइ आजके श्रावकोंकी स्थिति देख प्रश्न करते हो तो हम कह सकते हैं कि जैसे हालमें साधु है वैसे ही श्रावक हैं। परन्तु हमने तो अपने कर्तव्यमें चलनेवालोंकी बात लिखी है । देखिये, श्रावक प्रतिमा बहन करते हैं तब साधु माफिक रहते है तो क्या उसको मवा विसवा ही दया कही जावेगी? कभी नहीं । जो पूर्व महाऋषियोंने सवा विसवा कही है उन्हीको हम केवल बम जीवोंकी अपेक्षाको सत्य मानते है । तत्व केवली गम्यं ॥