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सबसे पूछना चाहिये. कारण - फिर ज्यादा हो तो परठते में महान दोष है. वास्ते उणोदरी तप करना.
॥ इति श्री बृहत्कल्प सूत्रका पांचवा उद्देशाका संक्षिप्त सार ॥
हा उद्देशा.
(१) साधु-साध्वीयों किसी जीवोंपर
(१) अछता - कूडा कलंक देना, (२) दुसरे की हीलना - निंदा करना, (३) किसीका जातिदोष प्रगट करना, (४) किसीको भी कठोर वचन बोलना,
(५) गृहस्थोंकी माफिक हे माता, हे पिता, हे मामा, हे मासी - इत्यादि मकार चकारादि शब्द बोलना. (६) उपशमा हुवा क्रोधादिककी पुनः उदीरणा करनी यह छे वचन बोलना साधु-साध्वीयों को नहीं कल्पै. कारन - इससे परजीवोंको दुःख होता है, साधुकी भाषासमितिका भंग होता है.
(२) साधु-साध्वीयों अगर किसी दुसरे साधुवोंका दोपको जानते हो, तोभी उसकी पूर्ण जाच करना, निर्णय करना, गवाह करना, बादही मे गुर्वादिकको कहना चाहिये. अगर ऐसा न करता हुवा एक साधु दुसरे साधुपर याक्षेप कर देवे, तो गुर्वादिकको जानना चाहियेकि श्राप करनेवालेको प्राय