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हे आर्य ! इस निदानका यह फल हुवाकि वह समर्थ नहीं है कि श्रावकके पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत, और नोकारसी आदि तथा पौषध, उपवासादि करनेको समर्थ न हो सके. । इति ।
(E) हे आर्य ! मैं जो धर्म कहा है, वह सर्व दुःखोंका अन्त करनेवाला है. इस धर्मकी अन्दर साधु, साध्वी पराक्रम करते हुवे ऐसा जानेकि-यह मनुष्य संबन्धी कामभोग अनित्य, अशाश्वत, यावत् पहिले या पीछे अवश्य छोडने योग्य है. तथा देवतावों संबन्धी कामभोगभी अनित्य, अशाश्वत है, वह चल चलायमान है. यावम् पहिले या पीछे अवश्य छोडनाही होगा. मनुष्य-देवोंके कामभोग विरक्त हुवा ऐसा जानेकिमेरे तप, संयम, ब्रह्मचर्यका फल हो, तो भविष्यमें मैं उग्र कुल, भोगकुलकी अन्दर महामाता ( उत्तम जाति ) की अन्दर पुत्रपणे उत्पन्न हो, जीवादि पदार्थका जानकार बन, यावत् साधु, साध्वीयोंको प्रासुक, निर्दोष, एषणिक, निर्जीव, अशन, पान, खादिम, स्वादिम आदि चौदा प्रकारका दान देता हुवा विचलं. ऐसा निदान कर आलोचना न करे, यावत् प्रायश्चित्त न लेवे ओर काल कर वह महाऋद्धि यावत् महा सुखवाला देवता हुवे, वहां चिरकाल देवताका सुख भोगवके, वहाँसे मरके उत्तम जाति-कुलकी अन्दर मनुष्य हुवे. वहां पर केवली प्ररुपित धर्म सुने, श्रद्धाप्रतीत रुचि करे, सम्यक्त्व सहित बा