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स्त्री आदिके संगसे विरक्त, एवं शरीर, स्नेह, ममत्वभावसे विरक्त सर्व चारित्रकी क्रियावोंके परिवारसे प्रवृत्त, उस श्रमण भगवन्तको अनुत्तर ज्ञान, अनुत्तर दर्शन, यावत् अनुत्तर निर्वाणका मार्गको संशोधन करता हुवा अपना आस्माको सम्यक्प्रकारसे भावते हुवेकों जिन्होंका अन्त नहीं है ऐसा अनुत्तर प्रधान, जिसको कोइ बाध न कर सके, जिसको कोइ प्रकारका आवरण नहीं आ सके, वह भी संपूर्ण, प्रतिपूर्ण, ऐसा महत्ववाला केवलज्ञान, केवलदर्शन उत्पन्न होते है.
वह श्रमण भगवन्त अरिहंत होते है. वह जिन केवली, सर्वज्ञानी, सर्वदर्शनी, देवता मनुष्य, असुरादिकसे पूजित, यावत् बहुत कालतक केवलीपर्याय पालके अपना अवशेष
आयुष्य जान, भक्त पानीका प्रत्याख्यान अर्थात् अनशन कर फिर चरम श्वासोश्वासकों बोसिराते हुवे सर्व शारीरिक और मानसिक दुःखोंका अन्त कर मोक्ष महेलमे विराजमान हो जाते है. ..... हे आर्य ! ऐसा अनिदान अर्थात् निदान नहीं करनेका फल यह हुवाकि उसी भवमें सर्व कर्मोंका मूलोंको उच्छेदन कर मोक्षसुखोंको प्राप्त कर लेते हैं. ऐसा उपदेश भगवान् वीरप्रभु अपने शिष्य साधु-साध्वीयोंको आमंत्रण करके दीया था, अर्थात् अपने शिष्योंकी डूबती नौकाको अपने करकमलोंसे · पार करी है.